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________________ ११० . नैष्कम्यसिद्धिः अच्छी तरहसे विचार करके भी यही निश्चित होता है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणसे अनात्माका ही ग्रहण होता है ॥ ५२ ॥ यस्माल्लौकिक्रप्रत्यक्षादिप्रमाणाऽनधिगम्योऽहंब्रह्मास्मीति वाक्यार्थस्तस्मात्--- अन्चयव्यतिरेकाम्यां निरस्याऽऽप्राणतो यतेः । वीक्षापन्नस्य कोऽस्मीति 'तदसीति श्रुतिर्जगौ ।। ५३ ॥ . चूँकि लौकिक प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे 'अहं ब्रह्माऽस्मि' इत्यादि महावाक्य द्वारा प्रतिपादित अखण्ड ब्रह्मज्ञान नहीं होता। अतएव-अन्वय-व्यतिरेकसे देहसे लेकर प्राणपर्यन्त सकल अनात्माओंका निरास करके 'मैं कौन हूँ' ऐसी जिज्ञासा जिस पुरुषको हुई है, उस पुरुषको श्रुतिने उस शुद्ध स्वरूपके प्रतिपादन करनेके लिए 'तत्त्वमसि' इत्यादि महावाक्यका उपदेश दिया है ॥ ५३ ॥ सोऽयमन्वयव्यतिरेकन्याय एतावानेव, यदवसानो वाक्यार्थस्तदभिज्ञस्य 'अहं ब्रह्माऽस्मीति' आविर्भवति । द्रष्ट्रदृश्यविभागेनागमापायिसाक्षिविभागेन च श्रुत्यभ्युपगमतः सङ्क्षिप्योच्यते. दृश्यत्वाद्धटवद्देहो देहवच्चेन्द्रियाण्यपि । मनश्चेन्द्रियवज्ज्ञेयं । मनोवनिश्चयादिमत् ॥ ५४ ॥ पूर्वोक्त अन्वय-व्यतिरेककी सीमा यही है कि जब 'अहं ब्रह्मास्मि' इस वाक्यका अर्थ असम्भावना और विपरीतभावनाके निराससे प्रत्यक्षरूपसे आविर्भूत हो । इसी अन्वय व्यतिरेक न्यायको श्रुति के अनुसार द्रष्टा, दृश्य और उत्पत्ति विनाशवान् वस्तु एवं उसका साक्षी, इस विभागसे संक्षेपसे वर्णन करते हैं देह दृश्य होनेके कारण घटादिके समान अनात्मा है। देहकी भाँति इन्द्रियों और इन्द्रियोंके तुल्य मनको भी समझना चाहिए और मनके तुल्य निश्चयादि वृत्तिवाला अन्तःकरण भी अनात्मा है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ५४ ॥ तथा सकलकार्यकारणागमापायि विभागसाक्षित्वेनाऽपिप्रागसद्याति पश्चात्सत् सच यायादसत्तथा । अनात्माभिजनं तत्स्याद्विपरीतः स्वयं दृशिः ॥ ५५ ॥ १ सदसीति, ऐसा पाठ भी है। २ आगमापाय०, ऐसा भी पाठ है। ३ तस्माद्विपरीतस्त्वयं दृशिः, ऐसा पाठ भी है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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