SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषानुवादसहिता परन्तु जो स्वभावसे ही गति-क्रिया-शून्य पर्वतादि हैं, उनमें स्वभावसिद्ध अचलत्वकी दृष्टिसे ही 'स्था' धातुका प्रयोग होता है ॥ १६ ॥ __ तयोः कूटस्थपरिणामिनोरात्माऽनवबोध एव सम्बन्धहेतुर्नपुनर्वास्तवः कश्चिदपि सम्बन्ध उपपद्यत इत्याह सम्यक्संशयमिथ्यात्वै/रेवेयं विभज्यते । हालोपादानताऽमीषां मोहादध्यस्यते दृशौ ॥ २० ॥ ऐसे कूटस्थ और परिणामी आत्मा और अहङ्कारका परस्पर सम्बन्ध करानेवाला अज्ञान ही है और कोई दूसरा वास्तविक अर्थात् सत्य पदार्थ नहीं है। इस बातको कहते हैं तत्त्वज्ञान, संशय और भ्रान्ति इत्यादि धर्मोंसे बुद्धि ही युक्त है। अतएव इन धर्मोंको सत्ता या असत्ता अज्ञानवश साक्षीमें आरोपित होती है। इसलिए साक्षी में कोई विशेष धर्म नहीं है ॥ २० ॥ कुतः कूटस्थात्मसिद्धिरिति चेत्, यतः न हानं हानमात्रेण नोदयोऽपीयता यतः । तसिद्धिः स्यात्तु तद्धीने हानादानविधर्मिणि' ॥२१॥ बुद्धि सम्बन्ध के बिना अात्मामें बोद्धृत्व नहीं दीख पड़ना, इसलिए आत्माकी कूटस्थता कैसे सिद्ध होगी ? इस शङ्काको दूर करते हैं बुद्धि और उसकी वृचि, .इनका हान अर्थात् अभाव वह केवल अपनेसे ही सिद्ध नहीं हो सकता, तथा इनका उदय यानी सद्भाव भी उसीसे सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि वे जड़ हैं। अतएव हानोपादान रहित साक्षीमें अध्यस्त होनेसे ही हो सकता है । इसलिए कूटस्थ साक्षी मानना चाहिए, जिससे इनकी सिद्धि होवे ।। २१ ॥ एवम् आगमापायिहेतुभ्यां धूत्वा सर्वाननात्मनः । ततस्तत्त्वमसीत्येतद्धन्त्यस्मदि' निजं तमः ॥ २२ ॥ इस प्रकार-'तत्त्वमसि' यह वाक्य अन्वय और व्यतिरेकसे आत्मा और १ हानादानविधर्मके, हानादानविधर्मिणम्, हानोपादानधर्मके, ऐसा ऐसा पाठ भेद भी उपलब्ध होता है। २ भागमापायहेतुभ्याम्, ऐसा भी पाठ है। ३ यस्मादिद्ध निजं तमः, पाठ भी है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy