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________________ - - - - - मगर मिटी है न अबतक अनादि से मेरी॥ तपत कषायोंकी बिषियोंकी सर्दि गरमी में ॥ स्वामी जान निरर्थक चन्दन तेरे चोंके आगे चढ़ावतहूं। स्वामी तू हितकारी दुख परहारी चों में सीस नमावतहूं। अक्षत से पूजा (४) यह अक्षतोंका भरा थाल जगमगाता है। मुझे बनावेगा अक्षय खयाल आता है । मगर मिला है न अबतक तो अक्षय पद स्वामी ॥ यह झूटा नामको अक्षत यूंही कहता है । सोही जान मिरर्थक अक्षत तेरे चर्णों के आगे चढ़ावतहूं ॥ स्वामी तू हितकारी दुख परहारी चर्गों में सीस नमावत हूं। पुष्प से पूजा (५) यकीं था फूलों की कलियां सुगंधसे पूरित ॥ हरेंगी कामको यह बनके बानकी सूरत । मगर न आजतलक कामदेवको जीता। बनी है कलियोंकी झूटी ही बानकी सूरत ।। सोही पुष्प निरर्थक जानके तेरे चर्णों के आगे चढ़ावत हैं। स्वामी तू हितकारी दुख परहारी चर्गों में सीस नमावत हूं। नैवेद्य से पूजा (६) नैवेद्य आदि पदारथमें प्राण था मेरा ॥ . . क्षुधाको दूर करेगी यह ध्यान था मेरा ।। - - -
SR No.010425
Book TitleMurti Mandan Prakash
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages43
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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