SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसी विक्ट सकटपूर्ण स्थिति मे समाज के व्यक्तियो को मूर्तियो एव हस्तलिखित शास्त्र भण्डार को मन्दिर से निकाल कर सुरक्षित स्थान पर पहुचाने की चिन्ता लगी हुई थी। समाज के कुछ साहसी व्यक्ति मूर्तियाँ एव शास्त्र भण्डार को लाने के लिये नौका द्वारा उस मन्दिर तक पहुँचे तथा मूर्तियो एव शास्त्र भण्डार को मन्दिर मे से निकालकर ज्यो ही नौका मे विराजमान कर उसमे सवार हुए तो उनके देखते ही देखते तत्काल सम्पूर्ण मन्दिर ढहकर जल मग्न हो गया। तत्पश्चात डेरागाजीखान के सभी जैन परिवार मुलतान जाकर रहने लगे तथा मूर्तियो एव शास्त्र भण्डार को मुलतान शहर के मन्दिर मे विराजमान कर दिया। ___ कुछ समय पश्चात् सिन्धु नदी से दस मील की दूरी पर नया डेरागाजीखान शहर वसाया गया । जैन परिवार भी नये डेरागाजीखान मे जाकर बस गये और वहाँ दिगम्बर जैन मन्दिर बनाया गया। जिन प्रतिमाओ एव शास्त्र भण्डार को पुन मन्दिर मे वेदी प्रतिष्ठा एव विशाल महोत्सव के साथ विराजमान किया गया। डेरागाजीखान के व्यक्तियों में स्वाध्याय के प्रति रुचि मुलतान के समान डेरागाजीखान का भी समाज श्रावक के षट कर्मों मे जैसे जिनेन्द्र पूजन, भक्ति, स्वाध्याय, दान आदि मे सदैव तत्पर एव कर्तव्यनिष्ठ था । प्रारम्भ से ही यहां का सपूर्ण समाज अध्यात्म प्रेमी था। समयसार एवं शुद्धात्म तत्व की, सूक्ष्म तलस्पर्शी भेदविज्ञान परक स्वात्मानुभव की चर्चाये परस्पर चलती थी। बनारसीदासजी के नाटक समयसार के प्रति लोगो मे विशेष आकर्षण था, इसके अध्यात्मिक एन सरस पद कुछ लोगो को कठस्थ याद थे। शास्त्र सभा एव गोष्ठियो मे इस अध्यात्म रस की अपूर्व लहर थी, लोगो के मुख से प्राय यह सुनने को मिलता था कि अनुभव चिन्तामणि रतन, अनुभव ही रसकूप । अनुभव मारग मोक्ष का, अनुभव मोक्ष स्वरूप ।। वर्तमान मे आदर्शनगर दिगम्बर जैन मन्दिर, जयपुर में डेरागाजीखान से लाई गई समयसार आदि की कई हस्तलिखित प्राचीन प्रतिया मौजूद हैं, यह उनकी आध्यात्मिक रूचि का ज्वलत उदाहरण है। सवत् 1766 की हस्तलिखित सर्व प्राचीन नाटक समयसार की प्रति जो यहा मौजूद है इससे सिद्ध होता है कि डेरागाजीखान समाज प्रारम्भ से [ 65 • मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक मे
SR No.010423
Book TitleMultan Digambar Jain Samaj Itihas ke Alok me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMultan Digambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy