SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाज मेवा में भी ये सदा अगणी रहते है । औषधालय आदि एव स्वयसेवक दल के रूप में सेवा कार्यों में दत्तचित्त रहते है । पं० अजितकुमार जी गान्त्री इनके विद्यागुरु थे, अतः उनके वियोग मे इस समाज ने पत्नी के परिवार को अच्छा आर्थिक सहयोग प्रदान किया था । अत सर्व नाधारण से इनका जीवन कुछ विशेष आदर्शपूर्ण देखा जाता है। यदि सम्पूर्ण जैन समाज इनक जीवन ने प्रेरणा लेकर अपने जीवन को इस प्रकार ढालने का प्रयत्न करे ". पर जन समाज अपने को आदर्श के रूप मे स्थापित कर सकता है। यह समाज म समाज मेवा एव धर्म-क्षेत्र मे इससे भी अधिक प्रगति के पथ पर निरन्तर आरोहण करती रहे यही मगल कामना है । - - - उदय बनती है । मन्दिरजी म. होती है तो हृदय गद्गद् ह पोने मे सुगध का धार्मिक ज्ञान कराने क कार्य है । मन्दिरजो के पृष्ठ । पी समूचित व्यवस्था ह कडो रोगी लाभान्वित हा धार्मिक समाज पं० मिलापचन्द शास्त्री जयपुर। मुलतान दिगम्बर जैन समाज परम धार्मिक समाज है। इसका जीता जागता भादर्शनगर का विशालकाय सुन्दर जिनालय है जिसकी भव्यता देखते ही ९ । मान्दरजी मे प्रात.काल जब ठाठ-बाट से सगीत के साथ सामूहिक पूजा हृदय गद्गद् हो उठता है । पूजा के बाद नियमित शास्त्र सभा का चलना उगध की कहावत को चरितार्थ करता है । रात्रि में समाज के बच्चो को न कराने के लिए नियमित कक्षाये लगती हैं जो कि अपने आप मे अभूतपूर्व ग्दरजी के पृष्ठ भाग मे पूज्य मुनिराजों, त्यागी व्रतियो के आवास की व्यवस्था है और वही पर औषधालय भवन बना हआ है जहा से प्रतिदिन लाभान्वित होते हैं । इस तरह धर्मायतन से चारो दानो की प्रवृति की रम्परा अक्षण्ण रूप से चल रही है । धार्मिकता एव समाजसेवा उद्यालय की स्थापना है । ३ हसपूर्ण सहयोग से ही सम्भ सेठ वैजनाथजी सरावगी एक ir एव समाजसेवा का दूसरा ज्वलन्त उदाहरण जयपुर मे जैन दर्शन स्थापना हैं । इस सस्था का जन्म मुलतान दिगम्बर जैन वन्धुओ के वा स ही सम्भव हआ है। मुझे अच्छी तरह याद है कि सन् 1951 ना सरावगी एव मुलतान जैन वन्धुओ की प्रेरणा से आदरणीय ब्रह्मचारी गुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक म [95
SR No.010423
Book TitleMultan Digambar Jain Samaj Itihas ke Alok me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMultan Digambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy