SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय १ सूत्र २ जीवाजीवादिनां तत्स्वार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपंवत् ||२२|| १७ "याका अर्थ - विपरीताभिनिवेशकरि रहित जीव अजीव प्रदि तत्वार्थनिका श्रद्धान सदाकाल करना योग्य है । सो यहु श्रद्धान आत्मा का स्वरूप है चतुर्थादि गुणस्थान विषै प्रगट हो है । पीछे सिद्ध अवस्था विपैं भी सदाकाल याका सद्भाव रहै है, ऐसा जानना " । ( देहली से प्र० सस्ती ग्रंथमालाका, मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० ४७०-७१) " इस संबंध मे पृ० ४७५ से ४७७ में पं० टोडरमल्लजी विशेष कहते है कि बहुरि प्रश्न—— वो छद्मस्थ के तो प्रतीति श्रप्रतीति कहना संभव है, तातें तहाँ सप्त तत्त्वनिकी प्रतीति सम्यक्त्वका लक्षरण कहया सो हम मान्यां; परन्तु केवली सिद्ध भगवान के तो सर्वका जानपना समानरूप है । तहाँ सप्त तत्त्वनिकी प्रतीति कहना संभव नाहीं । अर तिनकै सम्यक्त्व गुण पाइए ही है । तातैं तहाँ तिस लक्षण का अव्याप्तिपना आया । 1 · ताका समाधान-जैसे छद्मस्थ के श्रुतज्ञान अनुसार प्रतीति पाइए हैं तैसे, केवली सिद्ध भगवानके केवलज्ञानके अनुसार प्रतीति पाइए है । जो सप्त तत्त्वनिका स्वरूप पहले ठीक किया था, सो ही केवलज्ञान करि जान्या । तहाँ प्रतीति को परम श्रवगाढपनो भयो । याहीते परमावगाढ सम्यक्त्व कहया । जो पूर्वे श्रद्धान किया था, ताकौ जूठा जान्या होता, तो तहाँ अप्रतीति होती । सो तौ जैसा सप्त तत्त्वनिका श्रद्धान छनस्थ के भया था, तैसा ही केवली सिद्ध भगवान के पाइए है । तातै ज्ञानादिक की हीनता अधिकता होते भी तिर्यंचादिक वा केवली सिद्ध भगवानकं सम्यक्त्व गुण समान कहया । बहुरि पूर्व अवस्था विषै यहु मानें था-सवर निर्जराकरि मोक्षका उपाय करना । पीछे मुक्ति अवस्था भए ऐसे मानने लगे, जो संवर निर्जरा करि हमारे मोक्ष भई । बहुरि पूर्वे ज्ञानकी हीनता - करि ३
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy