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________________ १४ मोक्षशास्त्र (९) सम्यग्दर्शन का बल केवली और सिद्ध भगवान रागादिरूप परिणमित नहीं होते; और संसारावस्थाको नही चाहते; यह सम्यग्दर्शनका ही बल समझना चाहिये। (१०) सम्यग्दर्शन के भेद ज्ञानादिकी हीनाधिकता होने पर भी तिथंचादि (पशु प्रादि ) के और केवली तथा सिद्ध भगवानके सम्यग्दर्शनको समान कहा है। उनके आत्म-प्रतीति एक ही प्रकारकी होती है। किन्तु स्वपर्यायकी योग्यताकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनके तीन भेद हो जाते है (१)-औपशमिक सम्यग्दर्शन, (२) क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, (३) क्षायिक सम्यग्दर्शन ।। औपशमिक सम्यग्दर्शन-उस दशामें मिथ्यात्वकर्मके तथा अनंतानुबंधी कषायके जड़ रजकण स्वयं उपशमरूप होते है; जैसे मैले पानीमेंसे मैल नीचे बैठ जाता है; अथवा जैसे अग्नि राखसे ढक जाती है। आत्माके पुरुषार्थसे जीव प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करता है तब औपशमिक सम्यग्दर्शन ही होता है। * क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन-इस दशामें मिथ्यात्व और मिश्रमिथ्यात्व कर्मके रजकरण आत्मप्रदेशों से पृथक् होने पर उसका फल नहीं होता, और सम्यक्मोहनीयकर्मके रजकरण उदयरूप होते है, तथा अनन्तानुबन्धी कषायकर्मके रजकरण विसंयोजनरूप होते हैं । क्षायिक सम्यग्दर्शन-इस दशामे मिथ्यात्वप्रकृतिके (तीनों उपविभागके ) रजकण आत्मप्रदेशसे सर्वथा हट जाते है, इसलिये मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धीकी सातों प्रकृतियोंका क्षय हुआ कहलाता है। * अनादि मिथ्याष्टिके औपशमिक सम्यग्दर्शन होने पर मिथ्यात्व और भनन्तानुबंधी की चार,-ऐसी पांच प्रकृतियां उपशमरूप होती हैं। और सादि मिथ्यारप्टिके प्रीपमिक सम्यग्दर्शन होने पर जिसके मिथ्यात्वकी तीन प्रकृतियां सत्तारूप होती है उसके मिथ्यात्वकी तीन और अनन्तानुबंधीकी चार, ऐसे सात प्रकृतियाँ उपशमरूप होती है, और जिस सादि मिथ्याष्टिके एक मिथ्यात्व प्रकृति ही सत्तामें होती है उसके मिय्यार की एक पोर अनन्तानुबन्धी की चार,-ऐसी पांच प्रकृतियां उपशमरूप होती हैं।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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