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________________ ७६४ मोक्षशास्त्र चारों अनुयोगोंमें किसी समय व्यवहारनयकी मुख्यतासे कथन किया जाता है और किसी समय निश्चयनयको मुख्य करके कथन किया जाता है किन्तु उस प्रत्येक अनुयोगमें कथनका सार एक ही है और वह यह है कि निश्वयनय और व्यवहारनय दोनों जानने योग्य हैं, किन्तु शुद्धताके लिये आश्रय करने योग्य एक निश्चयनय ही है और व्यवहारनय कभी भी आश्रय करने योग्य नही है-वह हमेशा हेय ही है-ऐसा समझना । व्यवहारनयके ज्ञानका फल उसका प्राश्रय छोड़कर निश्चयनयका आश्रय करना है। यदि व्यवहारनयको उपादेय माना जाय तो वह व्यवहारनयके सच्चे ज्ञानका फल नहीं है किन्तु व्यवहारनयके अज्ञानका अर्थात् मिथ्यात्वका फल है। निश्चयनयके आश्रय करनेका अर्थ यह है कि निश्चयनयके विषयभूत मात्माके त्रिकाली चैतन्यस्वरूपका आश्रय करना और व्यवहारनयका आश्रय छोड़ना-उसे हेय समझना-इसका यह अर्थ है कि व्यवहारनयके विषयरूप विकल्प, परद्रव्य या स्वद्रव्यको अपूर्ण अवस्थाकी ओरका आश्रय छोड़ना। अध्यात्मका रहस्य अध्यात्ममे जो मुख्य है सो निश्चय और जो गौण है सो व्यवहार; यह कक्षा है, अतः उसमें मुख्यता सदा निश्चयनयकी ही है और व्यवहार सदा गौणरूपसे ही है। साधक जीवकी यह कक्षा या स्तर है। साधक जीवकी दृष्टिकी सतत कक्षाकी यही रीति है। साधक जीव प्रारम्भसे अन्ततक निश्चयनयकी मुख्यता रखकर व्यवहारको गौरण ही करता जाता है। इसीलिये साधकको साधक दशायें निश्चयकी मुख्यताके बलसे शुद्धताकी वृद्धि ही होती जाती है और अशलता हटती ही जाती है इस तरह निश्चयकी मुख्यताके बलसे ही पूर्ण केवलज्ञान होते हैं फिर वहाँ मुख्यता-गौणता नहीं होती और नय भी नही होता। वस्तुस्वभाव और उसमें किस ओर झुके ! वस्तुमें द्रव्य और पर्याय, नित्यत्व और अनित्यत्व इत्यादि को
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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