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________________ मोक्षशास्त्र अर्थ — जो स्वरूपकी प्राप्ति के लिये देखता है, जानता है तथा प्रवृत्ति करता है वह दर्शन - ज्ञान - चारित्र नामवाला रत्नत्रय है; यह कोई प्रथक् पदार्थ नहीं है परन्तु तन्मय आत्मा ही है अर्थात् आत्मा रत्नत्रयसे भिन्न नही किन्तु तन्मय ही है । ७८४ अपादान स्वरूप के साथ अभेदता यस्मात् पश्यति जानाति स्वस्वरूपाच्चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ।। १२ ।। अर्थ – जो निश्चयरूपसे देखता है, जानता है तथा जो निजस्वरूपसे वर्तता रहता है वह दर्शन - ज्ञान-चारित्रस्वरूप रत्नत्रय है, वह दूसरा कोई नहीं किन्तु तन्मय हुआ आत्मा ही है । संबन्ध स्वरूपके साथ अभेदता यस्य पश्यति जानाति स्वस्वरूपस्य चरत्यपि । दर्शनज्ञान चारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः || १३ ॥ अर्थ — जो निजस्वरूपके संबंधको देखता है, निजस्वरूपके संबंध को जानता है तथा निजस्वरूपके संबंधकी प्रवृत्ति करता है वह दर्शनज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय है । यह आत्मासे भिन्न अन्य कोई पदार्थ नहीं किन्तु श्रात्मा ही तन्मय है । आधार स्वरूपके साथ अभेदता यस्मिन् पश्यति जानाति स्वस्वरूपे चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः || १४ || अर्थ - जो निजस्वरूपमें देखता है, जानता है तथा निजस्वरूपमें स्थिर होता है वह दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप रत्नत्रय है । वह आत्मासे कोई भिन्न वस्तु नही किन्तु आत्मा ही तन्मय है ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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