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________________ परिशिष्ट १ निश्चयी मुनिका स्वरूप स्व द्रव्यं श्रद्दधानस्तु बुध्यमानस्तदेव हि । तदेवोपेक्षमाणश्च निश्चयान्मुनिसत्तमः ॥ ६॥ अर्थ-जो स्व द्रव्यको ही श्रद्धामय तथा ज्ञानमय बना लेते है और जिनके आत्माकी प्रवृत्ति उपेक्षारूप ही हो जाती है ऐसे श्रेष्ठ मुनि निश्चयरत्नत्रय युक्त हैं। निश्चयीके अभेदका समर्थन आत्मा ज्ञात्तया ज्ञानं सम्यक्त्वं चरितं हि सः । स्वस्थो दर्शन चारित्र मोहाभ्यामनुपप्लुतः ॥ ७॥ अर्थ-जो जानता है सो आत्मा है, ज्ञान जानता है इसीलिये ज्ञान ही आत्मा है। इसी तरह जो सम्यक् श्रद्धा करता है, सो आत्मा है। श्रद्धा करने वाला सम्यग्दर्शन है अतएव वही आत्मा है। जो उपेक्षित होता है सो प्रात्मा है । उपेक्षा गुरण उपेक्षित होता है अतएव वही आत्मा है अथवा आत्मा ही वह है । यह अभेद रत्नत्रयस्वरूप है, ऐसी अभेदरूप स्वस्थदशा उनके ही हो सकती है कि जो दर्शनमोह और चारित्रमोहके उदयाधीन नहीं रहता। इसका तात्पर्य यह है कि मोक्षका कारण रत्नत्रय बताया है, उस रत्नत्रयको मोक्षका कारण मानकर जहाँ तक उसके स्वरूपको जाननेकी इच्छा रहती है वहाँ तक साधु उस रत्नत्रय को विषयरूप ( ध्येयरूप) मान कर उसका चितवन करता है। वह विचार करता है कि रत्नत्रय इस प्रकार के होते हैं । जहाँ तक ऐसी दशा रहती है वहाँ तक स्वकीय विचार द्वारा रत्नत्रय भेदरूप ही जाना जाता है, इसीलिये साधुके उस प्रयत्नको भेदरूप रत्नत्रय कहते है; यह व्यवहारकी दशा है । ऐसी दशामें प्रभेदरूप रस्नत्रय कभी हो नही सकता । परन्तु जहाँ तक ऐसी दशा भी न हो अथवा ऐसे रत्नत्रयका स्वरूप समझ न ले वहाँ तक उसे निश्चयदशा कैसे प्राप्त हो सकती है ? यह ध्यान रहे कि व्यवहार करते करते निश्चय दशा प्रगट ही नहीं होती।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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