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________________ अध्याय १० उपसंहार ७७५ विचलित होता रहता है, इसीलिये मुक्तात्मा भी ऊर्ध्वलोकमें ही स्थिर न रहकर नीचे जाय अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थानमें जाय-ऐसा क्यों नहीं होता ? उचर:-पदार्थमें स्थानांतर होने का कारण स्थान नहीं है परन्तु स्थानांतरका कारण तो उसकी क्रियावती शक्ति है। जैसे नावमें जब पानी आकर भरता है तब वह डगमग होती है और नीचे डूब जाती है, उसी प्रकार आत्मामें भी जब कर्मास्रव होता रहता है तब वह संसारमें डूबता है और स्थान बदलता रहता है किन्तु मुक्त अवस्थामें तो जीव कर्मास्रवसे रहित हो जाता है, इसीलिये ऊर्ध्वगमन स्वभावके कारण लोकाग्रमे स्थित होनेके बाद फिर स्थानांतर होनेका कोई कारण नही रहता। यदि स्थानान्तरका कारण स्थानको मानें तो कोई पदार्थ ऐसा नही है जो स्थानवाला न हो; क्योकि जितने पदार्थ हैं वे सब किसी न किसी स्थान में रहे हुवे है और इसीलिये उन सभी पदार्थोका स्थानांतर होना चाहिये । परन्तु धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल आदि द्रव्य स्थानांतर रहित देखे जाते है अतः वह हेतु मिथ्या सिद्ध हो जाता है। अतः सिद्ध हुआ कि संसारी जीवके अपनी क्रियावती शक्ति के परिणमन की उस समयकी योग्यता उस क्षेत्रांतरका मूल कारण है और कर्मका उदय तो मात्र निमित्त कारण है। मुक्तात्मा कर्मास्रवसे सर्वथा रहित हैं अतः वे स्वस्थानसे विचलित नही होते । ( देखो तत्वार्थसार पृष्ठ ३८७ ) पुनश्च तत्त्वार्थसार अध्याय ८ की १२ वी गाथा मे बतलाया है कि गुरुत्व के अभावको लेकर मुक्तात्माका नीचे पतन नही होता।। 8-जीवकी मुक्त दशा मनुष्य पर्यायसे ही होती है और मनुष्य ढाई द्वीपमें ही होता है, इसीलिये मुक्त होनेवाले जीव ( मोडे विना) सीधे ऊर्ध्वगतिसे लोकांतमे जाते हैं । उसमे उसे एक ही समय लगता है। १०. अधिक जीव थोड़े क्षेत्र में रहते हैं प्रश्न-सिद्धक्षेत्रके प्रदेश तो असंख्यात हैं और मुक्त जीव अनंत हैं तो असंख्यात प्रदेशमे अनन्त जीव कैसे रह सकते है ?
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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