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________________ अध्याय १ सूत्र १ यात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होने से मोक्षमार्ग है और वह शुद्ध रत्नत्रयका फल निज शुद्धात्माकी प्राप्ति है ।" ( श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत नियमसार गा० २ को टीका ) ७ इस सूत्र मे 'सम्यग्दर्शन' कहा है वह निश्वयसम्यग्दर्शन है ऐसी बात तीसरेसूत्र से सिद्ध होती है, उसीमे निसर्गज और अधिगमज ऐसा भेद कहा है वह निश्चय सम्यग्दर्शनका ही भेद है । और इस सूत्र की संस्कृत टीका श्री तत्त्वार्थ राजवार्तिकमें जिस कारिका तथा व्याख्या द्वारा वर्णन किया है उस आधार से इस सूत्र तथा दूसरा सूत्र कथित सम्यग्दर्शन है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है, ऐसा सिद्ध होता है । तथा इस सूत्र में "ज्ञान" कहा है वह निश्चय सम्यग्ज्ञान है । अ० १ - सूत्र ६ में उसी के पांच भेद कहे है उसी मे मनः पर्यय और केवलज्ञान भी आ जाते है । इससे सिद्ध होता है कि यहाँ निश्चय सम्यग्ज्ञान कहा है । वाद में इस सूत्र मे 'चारित्रारिण' शब्द निश्चयसम्यक् चारित्र दिखाने के लिये कहा है । श्री तत्त्वार्थं रा० वा० मे इस सूत्र कथित सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्र को निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र माना है । क्योकि व्यवहार सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्र ( -व्यवहार रत्नत्रय ) आस्रव और वधरूप है, इससे यह सूत्र का अर्थ करने में यह तीनो आत्माकी शुद्ध पर्याय एकत्वरूप परिणमित हुई है । इस प्रकार शास्त्रकार दिखाते हैं ऐसा स्पष्ट होता है । पहले सूत्रका सिद्धान्त ( ५ ) अज्ञानदशा में जीव दुःख भोग रहे है, इसका कारण यह है कि उन्हें अपने स्वरूपके संबंध में भ्रम है; जिसे ( जिस भ्रम को ) 'मिथ्यादर्शन' कहा जाता है । 'दर्शन' का एक अर्थ मान्यता भी है, इसलिये मिथ्यादर्शनका अर्थ मिथ्या मान्यता है । जहाँ अपने स्वरूपकी मिथ्या मान्यता होती है वहां जीवको अपने स्वरूपका ज्ञान मिथ्या ही होता है, उस मिथ्या या खोटे ज्ञान को 'मिथ्याज्ञान' कहा जाता है । जहाँ स्वरूपकी मिथ्या
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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