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________________ अध्याय १० सूत्र ५-६-७ ७६१ टीका चौथे सूत्र में कहा हुआ सिद्धत्व जब प्रगट होता है तब तीसरे सूत्रमें कहे हुये भाव नहीं होते, तथा कर्मोका भी अभाव हो जाता है। उसी समय जीव ऊर्ध्वगमन करके सीधे लोकके अग्रभाग तक जाता है और वहाँ शाश्वत स्थित रहता है । छ8 और सातवें सूत्रमे ऊर्ध्वगमन होनेका कारण बतलाया है और लोकके अन्तभागसे आगे नही जानेका कारण आठवें सूत्र में बतलाया है ॥५॥ ___ अब मुक्त जीवके ऊर्ध्वगमनका कारण बतलाते हैं पूर्वप्रयोगादसंगत्वाद्वन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच ।। ___ अर्थ-[ पूर्व प्रयोगात् ] १-पूर्वप्रयोगसे, [ असंगत्वात् ] २संगरहित होनेसे, [बंधच्छेदात् ] ३-बन्धका नाश होनेसे [ तथा गतिपरिणामात् च ] और ४-तथा गतिपरिणाम अर्थात् ऊर्ध्वगमन स्वभाव होनेसे-मुक्त जीवके ऊर्ध्वगमन होता है। नोट-पूर्व प्रयोगका अर्थ है पूर्वमें किया हुआ पुरुषार्थ, प्रयत्न, उद्यम; इस संबंधमें इस अध्यायके दूसरे सूत्रकी टीका तथा सातवें सूत्रके पहले दृष्टांत परकी टीका बांचकर समझना ॥६॥ ऊपरके सूत्रमें कहे गये चारों कारणोंके दृष्टांत बतलाते हैं आविद्धकुलालचक्रवद्वयपगतलेपालाबुवदेरण्डबीज वदग्निशिखावच्च ॥७॥ अर्थ-मुक्त जीव [ प्राविद्धकुलाल चक्रवत् ] १-कुम्हार द्वारा घुमाये हुए चाककी तरह पूर्व प्रयोगसे, [ व्यपगतलेपालाबुवत् ] २-लेप दूर हो चुका है जिसका ऐसी तूम्बेकी तरह संगरहित होनेसे, [ एरंडबीजवत् ] ३-एरंडके बीजकी तरह बन्धन रहित होनेसे [ 1 ] और [अग्निशिखावत् ] ४-अग्निकी शिखा-(लो) की तरह ऊर्ध्वगमनस्वभावसे ऊर्ध्वगमन ( ऊपरको गमन ) करता है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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