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________________ अध्याय १० सूत्र २ ७५७ अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ) का अभाव तथा निर्जराके द्वारा कृत्स्न कर्म विप्रमोक्षो मोक्षः ] समस्त कर्मोंका अत्यन्त नाश होजाना सो मोक्ष है। टीका १-कर्म तीन प्रकारके है-(१) भावकर्म (२) द्रव्यकर्म और (३) नो कर्म । भावकर्म जीवका विकार है और द्रव्यकर्म तथा नोकर्म जड़ है। भाव कर्मका अभाव होनेपर द्रव्यकर्मका अभाव होता है और द्रव्यकर्मका अभाव होनेपर नोकर्म (-शरीर) का अभाव होता है । यदि मस्ति की अपेक्षासे कहें तो जो जीवकी संपूर्ण शुद्धता है सो मोक्ष है और यदि नास्तिकी अपेक्षासे कहें तो जीवकी संपूर्ण विकारसे जो मुक्तदशा है सो मोक्ष है। इस दशामें जीव कर्म तथा शरीर रहित होता है और इसका आकार अतिम शरीरसे कुछ न्यून पुरुषाकार होता है। २. मोक्ष यत्नसे साध्य है (१) प्रश्न-मोक्ष यत्नसाध्य है या प्रयत्नसाध्य है ? उत्तर-मोक्ष यत्नसाध्य है । जीव अपने यत्नसे (-पुरुषार्थसे ) प्रथम मिथ्यात्वको दूर करके सम्यग्दर्शन प्रगट करता है और फिर विशेष पुरुषार्थसे कम क्रमसे विकारको दूर करके मुक्त होता है । पुरुषार्थके विकल्पसे मोक्ष साध्य नही है । (२) मोक्षका प्रथम' कारण सम्यग्दर्शन है और वह पुरुषार्थसे ही प्रगट होता है। श्री समयसार कलश ३४ में अमृतचंद्र सूरि कहते है कि हे भव्य ! तुझे व्यर्थ ही कोलाहल करनेसे क्या लाभ है ? इस कोलाहलसे तू विरक्त हो और एक चैतन्यमात्र वस्तुको स्वयं निश्चल होकर देख; इसप्रकार छह महीना अभ्यास कर और देख कि ऐसा करनेसे अपने हृदय सरोवरमें आत्माकी प्राप्ति होती है या नही । अर्थात् ऐसा प्रयत्न करनेसे अवश्य आत्माको प्राप्ति होती है। पुनश्च कलश २३ में कहते हैं किहे भाई ! तू किसी भी तरह महाकष्टसे अथवा मरकरके भी (अर्थात्
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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