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________________ अध्याय १० सूत्र १ ७५५ 'लिये केवली भगवानकै यद्यपि वीतरागतारूप यथाख्यातचारित्र प्रगट हुआ है तथापि योगके व्यापारका नाश नहीं हुआ । योगका परिस्पंदनरूप व्यापार परमयथाख्यातचारित्रके दूषण उत्पन्न करनेवाला है । इस योगके विकार की क्रम क्रमसे भावनिर्जरा होती है । इस योगके व्यापारकी संपूर्ण भावनिर्जरा होजाने तक तेरहवाँ गुणस्थान रहता है । योगका अशुद्धतारूपचंचलतारूप व्यापार बंध पड़नेके बाद भी कितनेक समय तक अव्यावाघ, निर्नाम ( नाम रहितत्व ), श्रनायुष्य ( आयुष्यरहितत्व ) और निर्गोत्र आदि गुण प्रगट नही होते; इसीलिये चारित्रमे दूषण रहता है । चौदहवें गुणस्थानके अंतिम समयका व्यय होनेपर उस दोषका अभाव हो जाता है श्रीर उसीसमय परमयथाख्यात चारित्र प्रगट होनेसे अयोगी जिन मोक्षरूप अवस्था धारण करता है; इस रीतिसे मोक्ष अवस्था प्रगट होने पहले सयोगकेवली और अयोगकेवली ऐसे दो गुणस्थान प्रत्येक केवली भगवानके होते है । [ देखो - बृ० द्रव्यसंग्रह गा० १३-१४ की टीका ] (२) प्रश्न- यदि ऐसा मानें कि जब केवलज्ञान प्रगट हो उसी समय मोक्ष अवस्था प्रगट होजाय तो क्या दूषण लगेगा ? उत्तर -- ऐसा मानने पर निम्न दोष आते है १ - जीवमें योग गुरणका विकार होनेपर, तथा अन्य ( अव्याबाघ आदि ) गुणों में विकार होनेपर और परमयथाख्यातचारित्र प्रगट हुये बिना, जीवकी सिद्धदशा प्रगट हो जायगी जो कि अशक्य है | २- यदि जब केवलज्ञान प्रगट हो उसी समय सिद्ध दशा प्रगट हो जाय तो धर्म तीर्थ ही न रहे; यदि अरिहंत दशा ही न रहे तो कोई सर्वज्ञ उपदेशक - प्राप्त पुरुष ही न हो। इसका परिणाम यह होगा कि भव्य जीव अपने पुरुषार्थंसे धर्म प्राप्त करने योग्य - दशा प्रगट करनेके लिये तैयार हो तथापि उसे निमित्तरूप सत्य धर्मके उपदेशका ( दिव्यध्वनिका ) संयोग न होगा अर्थात् उपादान निमित्तका मेल टूट जायगा । इसप्रकार बन ही नहीं सकता, क्योकि ऐसा नियम है कि जिस समय जो जीव अपने उपादानको जागृति से धर्म प्राप्त करनेकी योग्यता प्राप्त करता है उससमय उस जीवके
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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