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________________ ७४७ अध्याय ९ उपसंहार ५-सम्यग्दृष्टि जीवने आत्मस्वभावकी प्रतीति करके अज्ञान और दर्शनमोहको जीत लिया है इसलिये वह रागद्वेषका कर्ता और स्वामी नहीं होता; वह कभी हजारो रानियोके संयोगके बीच में है तथापि 'जिन' है। चौथे, पांचवे गुणस्थानमें रहनेवाले जीवोका ऐसा स्वरूप है । सम्यग्दर्शनका माहात्म्य कैसा है यह बतानेके लिये अनन्त ज्ञानियोंने यह स्वरूप कहा है। सम्यग्दृष्टि जीवोके अपनी शुद्धपर्यायके अनुसार (-शुद्धताके प्रमाणमे) सवर-निर्जरा होती है। ६-सम्यग्दर्शनके माहात्म्यको नहीं समझनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवों की वाह्य सयोगों और वाह्य त्याग पर दृष्टि होती है, इसीलिये वे उपरोक्त कथनका आशय नही समझ सकते और सम्यग्दृष्टिके अतरंग परिणमनको वे नही समझ सकते। इसलिये धर्म करनेके इच्छुक जीवोको संयोगदृष्टि छोड़कर वस्तु स्वरूप समझनेकी और यथार्थ तत्त्वज्ञान प्रगट करनेकी आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और उनपूर्वक सम्यक्चारित्रके विना संवर-निर्जरा प्रगट करनेका अन्य कोई उपाय नही है। इस नवमें अध्यायके २६ वे सूत्रकी टीकासे मालूम पडेगा कि मोक्ष और ससार इन दो के अलावा और कोई साधने योग्य पदार्थ नहीं है। इस जगतमें दो ही मार्ग हैं-मोक्षमार्ग और संसारमार्ग। ७-सम्यक्त्व मोक्षमार्गका मूल है और मिथ्यात्व संसारका मूल है। जो जीव संसार मार्गसे विमुख हों वे ही जीव मोक्षमार्ग (अर्थात् सच्चे सुखके उपायरूप धर्म ) प्राप्त कर सकते हैं। बिना सम्यग्दर्शनके जीवके सवर-निर्जरा नही होती, इसीलिए दूसरे सूत्रमे सवरके कारण बतलाते हुए उनमे प्रथम गुप्ति वतलाई, उसके बाद दूसरे कारण कहे है ।। __ -यह ध्यान रहे कि इस शास्त्रमे प्राचार्य महाराजने महाव्रतों या देशव्रतोंको सवरके कारणरूपसे नही बतलाया, क्योकि सातवे अध्यायके पहले सूत्रमे बताये गये प्रमाणसे वह शुभास्रव है । ६-यह समझानेके लिये चौथे सूत्रमे 'सम्यक्' शब्दका प्रयोग किया है कि गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, दशप्रकारका धर्म, परीषहजय और चारित्र ये सभी सम्यग्दर्शनके बिना नहीं होते।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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