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________________ अध्याय ६ सूत्र ३७-३८ ७२७ अर्थ- शुक्ले चाधे ] पहले दो प्रकारके शुक्लध्यान अर्थात् पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क ये दो ध्यान भी [ पूर्वविदः ] पूर्वज्ञानधारी श्रुतकेवलीके होता है । नोट-इस सूत्रमें च शब्द है वह यह बतलाता है कि श्रुत केवली के धर्मध्यान भी होता है। टीका शुक्लध्यानके ४ भेद ३६ वें सूत्रमे कहेगे। शुक्लध्यानका प्रथम भेद आठवे गुणस्थानमे प्रारंभ होकर क्षपकमे-दशवें और उपशमकमें ११ वें गुरणस्थान तक रहता है, उनके निमित्तसे मोहनीय कर्मका क्षय या उपशम होता है। दूसरा भेद बारहवें गुणस्थानमें होता है, इसके निमित्तसे बाकीके धाति कर्म-यानी ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मका क्षय होता है । ग्यारहवे गुणस्थानमे पहला भेद होता है। २-इस सूत्रमे पूर्वधारी श्रुत केवलीके शुक्लध्यान होना बताया है सो उत्सर्ग कथन है, इसमें अपवाद कथनका गौरणरूपसे समावेश हो जाता है । अपवाद कथन यह है कि किसी जीवके निश्चय स्वरूपाश्रितमात्र आठ प्रवचनमाताका सम्यग्ज्ञान हो तो वह पुरुषार्थ बढाकर निजस्वरूपमें स्थिर होकर शुक्लध्यान प्रगट करता है, शिवभूति मुनि इसके दृष्टात हैं, उनके विशेष शाख ज्ञान न था तथापि ( हेय और उपादेयका निर्मल ज्ञान था,) निश्चयस्वरूपाश्रित सम्यग्ज्ञान था, और इसीसे पुरुषार्थ बढाकर शुक्लध्यान प्रगट करके केवलज्ञान प्राप्त किया था। ( तत्त्वार्थसार अध्याय ६ गाथा ४६ की टीका ) ॥ ३७॥ शुक्लध्यानके चार भेदोंमेंसे पहले दो भेद किसके होते हैं यह बतलाया; अब यह बतलाते हैं कि बाकीके दो भेद किसके होते हैं। परे केवलिनः ॥ ३८॥ अर्थ- परे ] शुक्लध्यानके अन्तिम दो भेद अर्थात सूक्ष्म क्रिया
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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