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________________ ७१४ मोक्षशास्त्र समय तक संघसे अलग करना सो परिहार है। (९) उपस्थापन-पुरानी दीक्षाका सम्पूर्ण छेद करके फिरसे नई दीक्षा देना सो उपस्थापन है। २-ये सब भेद व्यवहार प्रायश्चित्तके हैं। जिस जीवके निश्चय प्रायश्चित्त प्रगट हुआ हो उस जीवके इस नवप्रकारके प्रायश्चित्तको व्यवहारप्रायश्चित्त कहा जाता है किन्तु यदि निश्चय-प्रायश्चित्त प्रगट न हुआ हो तो वह व्यवहाराभास है। ३-निश्चय प्रायश्चित्तका स्वरूप निजात्माका ही जो उत्कृष्ट बोध, ज्ञान तथा चित्त है जो जीव उसे नित्य धारण करते है उसके ही प्रायश्चित्त होता है ( बोध, ज्ञान और चित्तका एक ही अर्थ है ) प्रायः-प्रकृष्टरूपसे और चित्त-ज्ञान, अर्थात् प्रकृष्टरूपसे जो ज्ञान है वही प्रायश्चित्त है। क्रोधादि विभावभावोंका क्षय करनेकी भावनामें प्रवर्तना तथा आत्मिक गुणोंका चिंतन करना सो यथार्थ प्रायश्चित्त है। निज आत्मिक तत्त्वमें रमणरूप जो तपश्चरण है वही शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त है। (देखो नियमसार गाथा ११३ से १२१ ) ४-निश्चय प्रतिक्रमणका स्वरूप जो कोई वचनकी रचनाको छोड़कर तथा राग द्वेषादि भावोंका निवारण करके स्वात्माको ध्याता है उसके प्रतिक्रमण होता है। जो मोक्षार्थी जीव सम्पूर्ण विराधना अर्थात् अपराधको छोड़कर स्वरूपकी आराधनामें वर्तन करता है उसके यथार्थ प्रतिक्रमण है। (श्री नियमसार गाथा ८३-८४) ५-निश्चय आलोचनाका स्वरूप जो जीव स्वात्माको-नोकर्म, द्रव्यकर्म तथा विभाव गुण पर्यायसे रहित ध्यान करते हैं उसके यथार्थ आलोचना होती है। समताभावमें स्वकीय परिणामको धरकर स्वात्माको देखना सो यथार्थ आलोचना है । ( देखो श्री नियमसार गाथा १०७ से ११२ ) ॥२२॥
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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