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________________ ६९२ मोक्षशाख यदि ऐसा माना जाय कि जैसे कर्मोदयसे विहार होता है वैसे ही श्राहार ग्रहण भी होता है सो यह भी यथार्थ नही है क्योकि बिहार तो विहायोगति नामक नामकर्मके उदयसे होता है, तथा वह पीढ़ाका कारण नहीं है और बिना इच्छाके भी किसी जीवके विहार होता देखा जाता है परन्तु आहार ग्रहण तो प्रकृतिके उदयसे नहीं किन्तु जब क्षुधादिकके द्वारा पीड़ित हो तभी जीव आहार ग्रहण करता है । पुनश्च आत्मा पवन आदिकको प्रेरित करनेका भाव करे तभी आहारका निगलना होता है, इसीलिये विहारके समान आहार सम्भव नही होता । अर्थात् केवली भगवानके विहार तो सम्भव है किन्तु आहार सम्भव नही है । (२) यदि यों कहा जाय कि केवली भगवानके सातावेदनीय कर्मके उदयसे आहारका ग्रहण होता है सो भी नहीं बनता, क्योंकि जो जीव क्षुघादिकके द्वारा पीड़ित हो और आहारा दिकके ग्रहणसे सुख माने उसके श्राहारादि साताके उदयसे हुये कहे जा सकते है, साता वेदनीयके उदयसे आहारादिकका ग्रहण स्वयं तो होता नही, क्योकि यदि ऐसा हो तो देवोंके तो साता वेदनीयका उदय मुख्यरूपसे रहता है तथापि वे निरन्तर श्राहार क्यों नही करते ? पुनश्च महामुनि उपवासादि करते हैं उनके साताका भी उदय होता है तथापि आहारका ग्रहरण नही और निरन्तर भोजन करने वालेके भी असाताका उदय सम्भव है । इसलिये केवली भगवानके बिना इच्छा भी जैसे विहायोगतिके उदयसे विहार सम्भव है वैसे ही बिना इच्छाके केवल सातावेदनीय कर्मके उदयसे ही आहार ग्रहण सम्भव नहीं होता । ( ४ ) पुनश्च कोई यह कहे कि - सिद्धान्तमें केवलोके क्षुधादिक ग्यारह परीषह कही है इसीलिये उनके क्षुधाका सद्भाव सम्भव है और वह क्षुधा आहारके बिना कैसे शांत हो सकती है इसलिये उनके श्राहारादिक भी मानना चाहिये - इसका समाधान --- कर्म प्रकृतियों का उदय मंद- तीव्र भेद सहित होता है । वह प्रति मन्द होने पर उसके उदय जनित कार्यकी व्यक्तता मालूम नही होती इसीलिये मुख्यरूपसे उसका अभाव कहा जाता है, किन्तु तारतम्यरूपसे उसका सद्भाव कहा जाता है । जैसे नवमें गुरण
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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