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________________ अध्याय ६ सूत्र ७ ६७५ आत्माका कल्याण होता है-इत्यादि प्रकारसे निर्जराके स्वरूपका विचार करना सो निर्जरा अनुप्रेक्षा है। स्वकाल पक निर्जरा ( सविपाक निर्जरा ) चारों गतिवालोंके होती है किन्तु तपकृत निर्जरा ( अविपाक निर्जरा ) सम्यग्दर्शन पूर्वक व्रत धारियोंके ही होती है ऐसा चितवन करना सो निर्जरा भावना है। (१०) लोक अनुप्रेक्षा-लोकालोकरूप अनन्त आकाशके मध्यमें चौदह राजू प्रमाण लोक है । इसके आकार तथा उसके साथ जीवका निमित्त नैमित्तिक संबंध विचारना और परमार्थकी अपेक्षासे आत्मा स्वयं ही स्वका लोक है इसलिये स्वयं स्वको ही देखना लाभदायक है, आत्माकी अपेक्षासे परवस्तु उसका अलोक है, इसलिये आत्माको उसकी तरफ लक्ष करनेकी आवश्यकता नही है। स्वके आत्म स्वरूप लोकमे ( देखने जाननेरूप स्वभावमे) स्थिर होनेसे परवस्तुएं ज्ञानमे सहजरूपसे जानी जाती है-ऐसा चितवन करना सो लोकानुप्रेक्षा है, इससे तत्त्वज्ञानकी शुद्धि होती है। ___ मात्मा निजके अशुभभावसे नरक तथा तिर्यंच गति प्राप्त करता है, शुभभावसे देव तथा मनुष्यगति पाता है और शुद्ध भावसे मोक्ष प्राप्त करता है-ऐसा चितवन करना सो लोक भावना है। (११) बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा-रत्नत्रयरूप बोधि प्राप्त करनेमें महान् पुरुषार्थकी जरूरत है, इसलिये इसका पुरुषार्थ बढाना और उसका चितवन करना सो बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा है। निश्चयनयसे ज्ञानमे हेय और उपादेयपनका भी विकल्प नहीं है इसलिये मुनिजनोके द्वारा ससारसे विरक्त होनेके लिये चितवन करना सो बोधिदुर्लभ भावना है। (१२) धर्मानुप्रेक्षा-सम्यक् धर्मके यथार्थ तत्त्वोका वारम्बार चितवन करना; धर्म वस्तुका स्वभाव है; आत्माका शुद्ध स्वभाव ही स्वकाआत्माका धर्म है तथा प्रात्माके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म अथवा दश लक्षणरूप धर्म अथवा स्वरूपकी हिंसा नही करनेरूप अहिंसाधर्म, वही
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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