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________________ ६७० मोक्षशास्त्र वीतरागकी आज्ञा माने किन्तु यह यथार्थ क्षमा नहीं है; क्योंकि यह पराधीन क्षमा है, यह धर्म नही है। (५) 'सच्ची क्षमा' अर्थात् 'उत्तम क्षमा' का स्वरूप यह है कि आत्मा अविनाशी, अबध, निर्मल ज्ञायक ही है, इसके स्वभावमें शुभाशुभ परिणाम का कर्तृत्व भी नही है। स्वयं जैसा है वैसा स्व को जानकर, मानकर उसमें ज्ञाता रहना-स्थिर होना सो वीतरागकी आज्ञा है और यह धर्म है। यह पांचवी क्षमा क्रोधमें युक्त न होना, क्रोधका भी ज्ञाता ऐसा सहज अकषाय क्षमा स्वरूप निज स्वभाव है । इसप्रकार निर्मल विवेककी जागृति द्वारा शुद्धस्वरूपमें सावधान रहना सो उत्तम क्षमा है। नोट-जैसे क्षमाके पांच भेद बतलाये तथा उसके पाचवें प्रकारको उत्तम क्षमाधर्म बतलाया, उसी प्रकार मार्दव, आर्जव, आदि सभी धर्मोमें ये पांचों प्रकार समझना और उन प्रत्येकमें पांचवां भेद ही धर्म है ऐसा समझना। ६-क्षमाके शुभ विकल्पका मै कर्ता नहीं हूँ ऐसा समझकर रागद्वेषसे छूटकर स्वरूपकी सावधानी करना सो स्व की क्षमा है स्व सन्मुखता के अनुसार रागादिकी उत्पत्ति न हो वही क्षमा है । 'क्षमा करना, सरलता रखना' ऐसा निमित्तकी भाषामें बोला तथा लिखा जाता है, परन्तु इसका अर्थ ऐसा समझना कि शुभ या शुद्ध परिणाम करनेका विकल्प करना सो भी सहज स्वभावरूप क्षमा नही है । 'मैं सरलता रखू, क्षमा करू' ऐसा भंगरूप विकल्प राग है, क्षमा धर्म नही है, क्योंकि यह पुण्य परिणाम भी बंधभाव है, इससे प्रबंध अरागी मोक्षमार्गरूप धर्म नहीं होता और पुण्यसे मोक्षमार्ग में लाभ-या पुष्टि हो ऐसा भी नही है ॥६॥ दूसरे सूत्र में कहे गये संवर के छह कारणोंमेसे पहले तीन कारणों का वर्णन पूर्ण हुआ । अब चौथा कारण बारह अनुप्रेक्षा हैं, उनका वर्णन करते हैं। बारह अनुप्रेक्षा अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यावसंवरनिर्जरा
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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