SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 737
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय ६ सूत्र २ वीतराग भाव होनेपर जीव जितने अंशमे मन-वचन-कायकी तरफ नही लगता उतने अशमे निश्चय गुप्ति है और यही संवरका कारण है। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक से ) (२) जो जीव नयोके रागको छोडकर निज स्वरूप में गुप्त होता है उस जीवके गुप्ति होती है। उनका चित्त विकल्प जालसे रहित शांत होता है और वह साक्षात् अमृत रसका पान करते हैं । यह स्वरूप गुप्तिकी शुद्ध क्रिया है । जितने अशमे वीतराग दशा होकर स्वरूपमे प्रवृत्ति होती है उतने अंशमे गुप्ति है। इस दशामे क्षोभ मिटता है और अतीन्द्रिय सुख अनुभवमे आता है। (देखो श्री समयसार कलश ६६ पृष्ठ १७५) (३) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक लौकिक वांछा रहित होकर योगोंका यथार्थ निग्रह करना सो गुप्ति है । योगोके निमित्तसे आने वाले कर्मोका आना बंध पड जाना सो संवर है । (तत्त्वार्थसार अ० ६ गा० ५) (४) इस अध्यायके चौथे सूत्रमे गुप्तिका लक्षण कहा है इसमे बतलाया है कि जो 'सम्यक् योग निग्रह' है सो गुप्ति है । इसमे सम्यक् शब्द अधिक उपयोगी है, वह यह बतलाता है कि विना सम्यग्दर्शनके योगोका यथार्थ निग्रह नही होता अर्थात् सम्यग्दर्शन पूर्वक ही योगोंका यथार्थ निग्रह हो सकता है। . (५) प्रश्न-योग चौदहवें गुणस्थानमे रुकता है, तेरहवें गुणस्थान तक तो वह होता है, तो फिर नीचेकी भूमिकावालेके 'योगका निग्रह' (गुप्ति ) कहासे हो सकती है ? उत्तर--प्रात्माका उपयोग मन, वचन, कायकी तरफ जितना न लगे उतना योगका निग्रह हुमा कहलाता है । यहा योग शब्दका अर्थ 'प्रदेशोंका कंपन' न समझना । प्रदेशोके कपनके निग्रहको गुप्ति नहीं कहा जाता किन्तु, इसे तो अकपता या अयोगता कहा जाता है; यह अयोग अवस्था चौदहवे गुणस्थानमे प्रगट होती है और गुप्ति तो चौथे गुणस्थानमें भी होती है। ८३
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy