SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 735
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय ६ सूत्र १ ६५५ संवर है बन्ध नहीं; किन्तु जितने अंशमे राग है उतने अंश में बन्ध है - ( देखो पुरुषार्थ सिद्धच पाय गाथा २१२ से २१४ ) ६ - प्रश्न — सम्यग्दर्शन संवर है और बन्धका कारण नही तो फिर अध्याय ६ सूत्र २१ मे सम्यक्त्वको भी देवायुकर्मके आस्रवका कारण क्यों कहा ? तथा अध्याय ६ सूत्र २४ मे दर्शन विशुद्धिसे तीर्थकर कर्मका श्रस्रव होता है ऐसा क्यों कहा ? उत्तर - तीर्थंकर नाम कर्मका बन्ध चौथे गुणस्थानसे आठवें गुणस्थानके छुट्ट े भाग पर्यंत होता है और तीन प्रकारके सम्यक्त्वको भूमिकामे यह बन्ध होता है । वास्तवमे ( भूतार्थनय से -- निश्चयनयसे ) सम्यग्दर्शन स्वयं कभी भी बन्धका कारण नही है, किन्तु इस भूमिकामे रहे हुए रागसे ही बन्ध होता है । तीर्थंकर नामकर्मके बन्धका कारण भी समयग्दर्शन स्वयं नही, परन्तु सम्यग्दर्शनकी भूमिकामे रहा हुआ राग वन्धका कारण है । जहाँ सम्यग्दर्शनको आस्रव या बन्धका कारण कहा हो वहाँ मात्र उपचारसे ( व्यवहार ) कथन है ऐसा समझना, इसे अभूतार्थनयका कथन भी कहते हैं । सम्यग्ज्ञानके द्वारा नयविभागके स्वरूपको यथार्थ जाननेवाला ही इस कथन के प्राशयको अविरुद्धरूपसे समझता है । प्रश्नमे जिस सूत्रका आधार दिया गया है उन सूत्रोको टीकामे भी खुलासा किया है कि सम्यग्दर्शन स्वयं बन्धका कारण नही है । ७9- निश्चय सम्यग्दृष्टि जीवके चारित्र अपेक्षा दो प्रकार हैंसरागी और वीतरागी । उनमेसे सराग- सम्यग्दृष्टि जीव राग सहित हैं अतः रागके कारण उनके कर्म प्रकृतियोका प्रस्रव होता है और ऐसा भी कहा जाता है कि इन जीवोके सरागसम्यक्त्व है, परन्तु यहाँ ऐसा समझना कि जो राग है वह सम्यक्त्वका दोष नही किन्तु चारित्रका दोष है । जिन सम्यग्दृष्टि जीवोके निर्दोष चारित्र है उनके वीतराग सम्यक्त्व कहा जाता है वास्तवमे ये दो जीवोके सम्यग्दर्शनमे भेद नही किन्तु चारित्रके भेदको अपेक्षासे ये दो भेद हैं । जो सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र के दोष सहित हैं उनके सराग सम्यक्त्व है ऐसा कहा जाता है और जिस जीवके निर्दोष चारित्र है उनके वीतराग सम्यक्त्व है ऐसा कहा जाता है । इस तरह चारित्रको
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy