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________________ ६५१ अध्याय ९ भूमिका जो उपयोग स्वरूप धरि, वरते जोग विरत्त, रोके आवत करमको, सो है सवर तत्त ॥३१॥ अर्थ-आत्माका जो भाव ज्ञानदर्शनरूप उपयोगको प्राप्त कर (शुभाशुभ ) योगोकी क्रियासे विरक्त होता है और नवीन कर्मके आस्रवको रोकता है सो संवर तत्त्व है। ५-निर्जराका स्वरूप उपरोक्त 8 बातोमें निर्जरा सम्बन्धी कुछ विवरण आगया है। संवर पूर्वक जो निर्जरा है सो मोक्षमार्ग है; इसीलिये इस निर्जराकी व्याख्या जानना आवश्यक है। (१) श्री पंचास्तिकायकी १४४ गाथामे निर्जराकी व्याख्या निम्न प्रकार है: संवरजोगेहि जुदो तवेहिं जो चिट्ठदेबहुविहेहिं । कम्मारणं रिगज्जरणं बहुगारण कुरणदि सो रिणयदं ॥ अर्थ-शुभाशुभ परिणाम निरोधरूप सवर और शुद्धोपयोगरूप योगोंसे संयुक्त ऐसा जो भेदविज्ञानी जीव अनेक प्रकारके अन्तरंग-बहिरंग तपो द्वारा उपाय करता है सो निश्चयसे अनेक प्रकारके कर्मोकी निर्जरा करता है।' । इस व्याख्यामे ऐसा कहा है कि 'कर्मोकी निर्जरा होती है और इसमे यह गभित रखा है कि इस समय आत्माकी शुद्ध पर्याय कैसी होती है, इस गाथाकी टीका करते हुये श्री अमृतचन्द्राचार्यने कहा है कि. ... स खलु बहूनां कर्मणां निर्जरणं करोति । तदत्रकर्मवीर्य शातनसमर्थो बहिरंगांतरग तपोभिर्वृहितः शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा।' अर्थ-यह जीव वास्तवमे अनेक कर्मोकी निर्जरा करता है इसीलिये यह सिद्धान्त हुआ कि अनेक कर्मोकी शक्तियोको नष्ट करनेमे समर्थ वहिरंगअन्तरंग तपोंसे वृद्धिको प्राप्त हुआ जो शुद्धोपयोग है सो भाव-निर्जरा है। (देखो पंचास्तिकाय पृष्ठ २०६)
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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