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________________ ६४६ मोक्षशास्त्र १-आस्रवके रोकनेपर आत्मामें जिस पर्यायको उत्पत्ति होती है वह शुद्धोपयोग है। इसीलिये उत्पादकी अपेक्षासे संवरका अर्थ शुद्धोपयोग होता है । उपयोग स्वरूप शुद्धात्मामें उपयोगका रहना-स्थिर होना सो संवर है। ( देखो समयसार गाथा १८१) २-उपयोग स्वरूप शुद्धात्मामें जब जीवका उपयोग रहता है तव नवीन विकारी पर्याय (-पास्रव ) रुकता है अर्थात् पुण्य-पापके भाव रुकते है । इस अपेक्षासे संवरका अर्थ 'जीवके नवीन पुण्य-पापके भावको रोकना होता है। ३-ऊपर बतलाये हुये निर्मल भाव प्रगट होनेसे आत्माकी साथ एक क्षेत्रावगाहरूपमें आनेवाले नवीन कर्म रुकते है इसीलिये कर्मकी अपेक्षासे संवरका अर्थ होता है 'नवीन कर्मके आस्रवका रुकना।' (२) उपरोक्त तीनों अर्थ नयकी अपेक्षासे किये गये हैं वे इसप्रकार हैं-१-प्रथम अर्थ आत्माकी शुद्ध पर्याय प्रगट करना बतलाता है, इसीलिये पर्यायकी अपेक्षासे यह कथन शुद्ध निश्चयनयका है। २ दूसरा अर्थ यह बतलाता है कि आत्मामें कौन पर्याय रुकी, इसीलिये यह कथन व्यवहारनय का है और ३-अर्थ इसका ज्ञान कराता है कि जीवकी इस पर्यायके समय परवस्तुकी कैसी स्थिति होती है, इसीलिये यह कथन असद्भूतव्यवहार नयका है । इसे असद्भुत कहनेका कारण यह है कि आत्मा जड़ कर्मका कुछ कर नहीं सकता किन्तु आत्माके इसप्रकारके शुद्ध भावको और नवीन कर्मके आस्रवके रुकजानेको मात्र निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है। (३) ये तीनों व्याख्यायें नयकी अपेक्षासे है, अतः इस प्रत्येक व्याख्यामें बाकीकी दो व्याख्याये गभितरूपसे अन्तर्भूत होती हैं, क्योंकि नयापेक्षाके कथनमें एककी मुख्यता और दूसरेकी गौरणता होती है । जो कथन मुख्यतासे किया हो उसे इस शास्त्रके पांचवें अध्यायके ३२ वें सूत्र में 'अर्पित' कहा गया है। और जिस कथनको गौण रखा गया हो उसे 'अनर्पित' कहा गया है। अपित्त और अनर्पित इन दोनों कथनोंको एकत्रित करनेसे जो अर्थ हो वह पूर्ण ( प्रमाण ) अर्थ है, इसीलिये यह व्याख्या सर्वांग है । अर्पित कथनमें यदि अर्पितकी गौणता रखी गई हो तो यह
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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