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________________ ૬૪૪ मोक्षशास्त्र (३) उसी समय स्वरूपकी सावधानीको लेकर अपना (निजका ) दर्शन अपनी तरफ न मोड़कर परकी तरफ मोड़ता है, यह भाव दर्शनावरण कर्मके बन्धका निमित्त होता है । (४) उसी समय मे स्वरूपको सावधानी होनेसे अपना वीर्यं ग्रपनी तरफ नही मोड़कर परकी तरफ मोड़ता है, यह भाव - ग्रन्तरायकर्मके वन्ध का निमित्त होता है | (५) परकी ओरके झुकावसे परका संयोग होता है, इसीलिये इस समयका ( स्वरूपकी असावधानी के समयका ) भाव - शरीर इत्यादि नामकर्मके बन्धका निमित्त होता है । (६) जहाँ शरीर हो वहाँ ऊँच-नीच श्राचारवाले कुलमें उत्पत्ति होती है, इसीलिये इसीसमयका रागभाव - गोत्रकर्मके वंवका निमित्त होता है । (७) जहाँ शरीर होता है वहाँ वाहरकी अनुकूलता प्रतिकूलता, रोगनिरोग आदि होते है, इसीलिये इस समयका रागभाव - वेदनीयकर्मके बन्धका निमित्त होता है । अज्ञान दशा में ये सात कर्म तो प्रति समय वँधा ही करते हैं, सम्यक्दर्शन होनेके बाद क्रम क्रमसे जिस जिस प्रकार स्वसन्मुखता के बलसे चारित्र की असावधानी दूर होती है उसी उसी प्रकार जीवमें शुद्धदशा-अविकारीदशा बढ़ती जाती है और यह अविकारी (निर्मल ) भाव पुद्गल कर्मके बन्ध में निमित्त नही होता इसीलिये उतने अंशमें बन्धन दूर होता है । (८) शरीर यह संयोगी वस्तु है, इसीलिये जहाँ यह संयोग हो वहां वियोग भी होता ही है, अर्थात् शरीरकी स्थिति अमुक कालकी होतो है | वर्तमान भवमें जिस भवके योग्य भाव जीवने किये हों वैसी आयुका बन्ध नवीन शरीरके लिये होता है । ७- द्रव्यबन्धके जो पांच कारण हैं इनमें मिथ्यात्व मुख्य है और इस कर्मबन्धका प्रभाव करनेके लिये सबसे पहला कारण सम्यग्दर्शन ही है । सम्यग्दर्शन होनेसे ही मिथ्यादर्शनका अभाव होता है और उसके बाद ही स्वरूपके आलम्बनके अनुसार क्रम क्रमसे अविरति श्रादिका अभाव होता है । इस प्रकार श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रके आठवें अध्यायकी गुजराती टीकाका हिन्दी अनुवाद पूर्ण हुआ ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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