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________________ अध्याय ८ सूत्र ११-१२-१३ ६३५ अर्थ-[ गतिजातिशरीरांगोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूागुरुलघूपधातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः] गति, जाति, शरीर, अगोपाग, निर्माण, बन्धन, सघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास और विहायोगति ये इक्कीस तथा [ प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशःकोतिसेतराणि ] प्रत्येक शरीर, त्रस, शुभग, सुस्वर, शुभ, सूक्ष्म, पर्याप्ति, स्थिर, आदेय और यश-कीर्ति, ये दश तथा इनसे उलटे दस अर्थात् साधारण शरीर, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर, अशुभ, बादर (-स्थूल ) अपर्याप्ति, अस्थिर, अनादेय, और अयशःकीर्ति ये दस [तीर्थकरत्व च] और तीर्थकरत्व, इस तरह नाम कर्मके कुल ब्यालीस भेद हैं। टीका सूत्रके जिस शब्द पर जितने अङ्क लिखे हैं वे यह बतलाते है कि उस शब्दके उतने उपभेद हैं, उदाहरणार्थ:-गति शब्द पर चारका अङ्क लिखा है वह यह बतलाता है कि गतिके चार उपभेद हैं । गति आदि उपभेद सहित गिना जाय तो नाम कर्मके कुल ६३ भेद होते है। इस सूत्र में आये हुए शब्दोंका अर्थ श्री जैनसिद्धान्त प्रवेशिकामेसे देख लेना ॥११॥ गोत्रकर्मके दो भेद उच्चैर्नीचैश्च ॥१२॥ अर्थ-[ उच्चर्नीचैश्च ] उच्चगोत्र और नीचगोत्र ये दो भेद गोत्र कर्मके हैं ॥१२॥ _ अंतरायकर्मके ५ भेद बतलाते हैं दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥१३॥ अर्थ-[ दानलाभभोगोपभोग वीर्याणाम् ] दानांतराय, लाभातराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय और वीर्यान्तराय ये पांच भेद अन्तराय कर्मके हैं। प्रकृतिबन्धके उपभेदोंका वर्णन यहां पूर्ण हुआ ॥१३॥
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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