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________________ मोक्षशास (२) आत्मा स्वयं ही बंधरूप परिणमती है, इसीलिये बंधको कर्त्ता कहा जाता है, यह कर्तृ साधन है । ६२६ (३) पहले बंधकी अपेक्षासे आत्मा बन्धके द्वारा नवीन बंध करता है इसीलिये बन्ध करणसाधन है । (४) बंधनरूप जो क्रिया है सो ही भाव है, ऐसी क्रियारूप भी बंध है यह भावसाधन है ||२|| बन्धके भेद प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशास्तद्विधयः ||३|| - अर्थं—–[तत्] उस बन्धके [ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशाः ] प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबध और प्रदेशबंध [ विधयः ] ये चार भेद हैं । टीका १. प्रकृतिबंध - कर्मोके स्वभावको प्रकृतिबंध कहते हैं । स्थितिबंध —— ज्ञानावरणादि कर्म अपने स्वभावरूपसे जितने समय रहे सो स्थितिबंध है । अनुभागबंध — ज्ञानावरणादि कर्मोके रसविशेषको अनुभागबन्ध कहते हैं । प्रदेश बंध — ज्ञानावरणादि कर्मरूपसे होनेवाले पुद्गलस्कन्धों के परमाणुत्रोंकी जो संख्या है सो प्रदेशबंध है । बंधके उपरोक्त चार प्रकारमेंसे प्रकृतिबंध और प्रदेशवंघमे योग निमित्त है और स्थितिबंध तथा अनुभागवंध में कपाय निमित्त है । २ – यहाँ जो वन्धके भेद वर्णन किये है वे पुद्गल कर्मबन्धके हैं; अव उन प्रत्येक प्रकारके भेद-उपभेद अनुक्रमसे कहते हैं ॥३॥ प्रकृतिबन्धके मूल भेद याद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥४॥
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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