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________________ अध्याय ७ उपसंहार ६०५ २-सम्यग्दृष्टि जीवके आंशिक वीतराग चारित्रपूर्वक महाव्रतादिरूप शुभोपयोग हो उसे सराग चारित्र कहते हैं यह सराग चारित्र अनिष्ट फलवाला होनेसे छोडने योग्य है। जिसमें कषायकरण विद्यमान है अत: जो जीवको पुण्यबन्धकी प्राप्तिका कारण है ऐसा सराग चारित्र बीचमे पागया हो तथापि सम्यग्दृष्टिके उसके दूर हो जानेका प्रयत्न चालू होता है। (देखो प्रवचनसार गाथा १-५-६ टीका ) ३-महाव्रतादि शुभोपयोगके उपादेयरूप ग्रहणरूप मानना सो मिथ्यादृष्टित्व है। इस अध्यायमे उन व्रतोको आस्रवरूपसे वरिणत किया है तो वे उपादेय कैसे हो सकते हैं ? प्रास्रव तो बन्धका ही साधक है और चारित्र मोक्षका साधक है, इसीलिये इन महाव्रतादिरूप आस्रवभावोमें चारित्रका सभव नही होता। चारित्र मोहके देशघाती स्पर्द्धकोके उदयमें युक्त होनेसे जो महामंद प्रशस्त राग होता है वह तो चारित्रका दोष है। उसे अमुक दशातक न छूटनेवाला जानकर ज्ञानी उसका त्याग नही करते और सावध योगका ही त्याग करते हैं। किन्तु जैसे कोई पुरुष कंदमूलादि अधिक दोषवाली हरितकायका त्याग करता है और कोई हरितकायका आहार करता है किन्तु उसे धर्म नही मानता उसीप्रकार मुनि हिंसादि तीव्र कषायरूप भावोका त्याग करते हैं तथा कोई मद कषायरूप महाव्रतादिको पालते हैं परन्तु उसे मोक्षमार्ग नही मानते। (मो० प्र० पू० ३३७ ) ४-इस प्रानव अधिकारमें अहिंसादि व्रतोंका वर्णन किया है इससे ऐसा समझना कि किसी जीवको न मारना ऐसा शुभभावरूप अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहभाव ये सब पुण्यास्रव हैं । इस अधिकारमें सवर निर्जराका वर्णन नही है। यदि ये अहिंसादि सवर निर्जराका कारण होते तो इस प्रास्रव अधिकारमे प्राचार्यदेव उनका वर्णन न करते। ५-व्रतादिके समय भी चार घातिया कर्म बंधते है और घातिकर्म तो पाप है। सम्यग्दृष्टि जीवके सच्ची-यथार्थ श्रद्धा होनेसे दर्शनमोहअनन्तानुबंधी क्रोध मान-माया-लोभ तथा नरकगति इत्यादि४१कर्मप्रकृतियों
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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