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________________ ५८३ मध्याय ७ सूत्र १९ टीका १. शल्य-शरीरमें भोंका गया बाण, काटा इत्यादि शस्त्रकी तरह जो मनमें बाधा करे सो शल्य है अथवा जो आत्माको कांटे की तरह दुःख दे सो शल्य है। शल्यके तीन भेद हैं-मिथ्यात्वशल्य, मायाशल्य और निदानशल्य । मिथ्यादर्शनशल्य-प्रात्माके स्वरूपकी श्रद्धाका जो अभाव है सो मिथ्यादर्शनशल्य है। मायाशल्य-छल, कपट, ठगाईका नाम मायाशल्य है । निदानशल्य-आगामी विषय भोगोंको वांछाका नाम निदानशल्य है। २-मिथ्यादृष्टि जीव शल्य सहित ही है इसीलिये उसके सच्चे व्रत नहीं होते, बाह्य व्रत होते हैं । द्रव्यलिंगो मिथ्यादृष्टि है इसीलिये वह भी यथार्थ व्रती नही । मायावी कपटीके सभी व्रत भूठे हैं । इन्द्रियजनित विषयभोगोंकी जो वांछा है सो तो आत्मज्ञानरहित राग है, उस राग सहित जो व्रत हैं वे भी अज्ञानीके व्रत हैं, वह धर्मके लिए निष्फल है, संसार के लिए सफल है, इसलिए परमार्थसे शल्य रहित हो व्रती हो सकता है। ३-द्रव्यलिंगी का अन्यथापन प्रश्न-द्रव्यलिंगी मुनि जिनप्रणीत तत्त्वोंको मानता है तथापि उसे मिथ्यादृष्टि क्यों कहते हो? उचर-उसके विपरीत अभिनिवेश है अतः शरीराश्रित क्रियाकांड को वह अपना मानता है ( यह अजीवतत्त्वमे जीवतत्त्वकी श्रद्धा हुई) आस्रव बन्धरूप शील-संयमादि परिणामोंको वह संवर निर्जरारूप मानता है । यद्यपि वह पापसे विरक्त होता है परन्तु पुण्यमे उपादेय बुद्धि रखता है, इसीलिये उसे तत्त्वार्थको यथार्थ श्रद्धा नहीं; अतः वह मिथ्यादृष्टि है। प्रश्न-द्रयलिंगी धर्मसाधनमें अन्यथापन क्यों है ?
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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