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________________ मध्याय ७ सूत्र.१३-१४ ५७७ १२. तेरहवें सूत्रका सिद्धान्त. जीवका प्रमत्तभाव शुद्धोपयोगका घात करता है इसलिये वही हिंसा है, और स्वरूपके उत्साहसे जितने अंशमें शुद्धोपयोगका घात न हो-जागृति हो उतने अंशमें अहिंसा है मिथ्यादृष्टिके सच्ची अहिंसा कभी नहीं है ॥१३॥ ___ असत्यका स्वरूप असदभिधानमनृतम् ॥१४॥ अर्थ-प्रमादके योगसे [ असदभिधानं ] जीवोंको दुःखदायक, अथवा मिथ्यारूप वचन बोलना सो,[ अनुतम् ] असत्य है। - . टीका । १. प्रमादके संबंधसे झूठ बोलना सो असत्य है। जो शब्द निकलता है वह तो पुद्गल, द्रव्यकी अवस्था है उसे- जीव नही परिणमाता, इसीसे मात्र शब्दोका उच्चारणका पाप नही किन्तु जीवका असत्य बोलनेका-जो प्रमादभाव है वही पाप है। २. सत्यका परमार्थ स्वरूप (१) आत्माके अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ आत्माका नही हो सकता और दूसरे किसीका कार्य आत्मा कर सकता नही ऐसा वस्तुस्वरूपका निश्चय करना चाहिये; और देह, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्य, गृह इत्यादि पर वस्तुओके संवधमे भाषा बोलनेके विकल्पके समय यह उपयोग (-अभिप्राय) रखना चाहिये कि 'मैं आत्मा हूँ; एक आत्माके अलावा अन्य "कोई मेरा नही, मेरे आधीन नही और मैं किसीका कुछ भी कर नही सकता' अन्य प्रात्माके सम्बन्धमे बोलने पर भी यह अभिप्राय, यह उपयोग (-विवेक ) जाग्रत रखना चाहिये कि वास्तवमे 'जाति, लिंग, इन्द्रियादिक उपचरित भेदवाला यह आत्मा कभी नही है, परन्तु स्थूल व्यवहारसे ऐसा कहा जाता है। यदि इस तरहकी पहचानके उपयोग पूर्वक सत्य बोलनेका भाव हो तो वह पारमार्थिक सत्य है । वस्तु स्वरूपकी प्रतीति विना परमार्थ सत्य नहीं होता। इस सम्बन्धमे और स्पष्ट समझाते हैं: ७३
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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