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________________ ५७१ अध्याय ७ सूत्र १२ वह लौकिकजन हो या मुनिजन हो-मिथ्यादृष्टि ही है।' ( कलश, २०१) "क्योकि इस लोकमे एक वस्तुका अन्य वस्तुके साथ सारा सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, इसीलिये जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुयें हैं वहीं कर्ताकर्मकी घटना नही होती-इसप्रकार मुनिजन और लौकिकजनों तत्त्वको ( वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ) अकर्ता देखो (-ऐसा श्रद्धान करना कि कोई किसीका कर्ता नही, परद्रव्य परका अकर्ता ही है )" ऐसी सत्य-यथार्थ बुद्धिको शिवबुद्धि अथवा कल्याणकारी बुद्धि कहते हैं। -शरीर, स्त्री, पुत्र, धन इत्यादि पर वस्तुप्रोमें जीवका ससार नही है, किन्तु मैं उन परद्रव्योंका कुछ कर सकता हूँ अथवा मुझे उनसे सुख दुःख होता है ऐसी विपरीत मान्यता ( मिथ्यात्व ) ही संसार है । संसार यानी (सं+स ) अच्छी तरह खिसक जाना । जीव अपने स्वरूपकी यथार्थ मान्यतामेसे अनादिसे - अच्छी तरह खिसक जानेका कार्य ( विपरीत मान्यतारूपी कार्य करता है इसीलिए यह संसार अवस्थाको प्राप्त हुआ है। अतः जीवकी विकारी अवस्था ही संसार है, किन्तु जीवका संसारा जीवसे बाहर नही है। प्रत्येक जीव स्वय अपने गुण पर्यायोमें है, जो अपने गुण पर्याय हैं सो जीवका जगत् है । न तो जीवमे जगत्के अन्य द्रव्य हैं और न यह जीव जगत्के अन्य द्रव्योमें है। सम्यग्दृष्टि जीव जगत्के स्वरूपका इसप्रकार चितवन करता है। २. शरीरका स्वभाव शरीर अनन्त रजकणोका पिण्ड है। जीवका कार्माण शरीर और तैजस शरीरके साथ अनादिसे सयोग सम्बन्ध है, सूक्ष्म होनेसे यह शरीर इंद्रियगम्य नही। इसके अलावा जीवके एक स्थूल शरीर होता है; परन्तु जब जीव एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है तब बीचमें जितना समय लगता है उतने समय तक ( अर्थात् विग्रहगतिमे) जीवके यह स्थूल शरीर नही होता । मनुष्य तथा एकेन्द्रियसे पचेन्द्रिय तकके तिर्यंचोंके जो स्थूल शरीर होता है वह औदारिक शरीर है और देव तथा नारकियोंके वैक्रियिक शरीर होता है । इसके सिवाय एक आहारक शरीर होता है,
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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