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________________ ५५६ - मोक्षशास्त्र अब रत्नत्रय और रागका फल दिखाते हैं वहाँ पर गा० २१२ से २१४ में गुणस्थानानुसार सम्यग्दृष्टिके रागको बन्धका ही कारण कहा है और वीतराग भावरूप सम्यक् रत्नत्रयको मोक्षका ही कारण कहा है फिर गा० २२० में कहा कि-'रत्नत्रयरूप धर्म मोक्षका ही कारण है और दूसरी गतिका कारण नहीं है और फिर जो रत्नत्रयके सद्भावमें जो शुभप्रकृतियोंका आस्रव होता है वह सब शुभ कषाय-शुभोपयोगसे ही होता है अर्थात् वह शुभोपयोगका ही अपराध है किन्तु रत्नत्रयका नहीं है कोई ऐसा मानता है कि सम्यग्दृष्टिके शुभोपयोगमें (-शुभभावमें) आंशिक शुद्धता है किन्तु ऐसा मानना विपरीत है, कारण कि निश्चय सम्यक्त्व होनेके बाद चारित्रकी प्रांशिक शुद्धता सम्यग्दृष्टिके होती है वह तो चारित्रगुरणकी शुद्ध परिणति है और जो शुभोपयोग है वह तो अशुद्धता है। कोई ऐसा मानता है कि, सम्यग्दृष्टिका शुभोपयोग मोक्षका सच्चा कारण है अर्थात् उनसे संवर-निर्जरा है अतः वे बन्धका कारण नहीं हैं तो यह दोनों मान्यता अयथार्थ ही है ऐसा उपरोक्त शाखाधारोंसे सिद्ध होता है। ६.इस सूत्रका सिद्धान्त जीवोंको सबसे पहले तत्त्वज्ञानका उपाय करके सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट करना चाहिये, उसे प्रगट करनेके बाद निजस्वरूपमें स्थिर रहनेका प्रयत्न करना और जब स्थिर न रह सके तब अशुभभावको दूर कर देशवतमहाव्रतादि शुभभावमे लगे किन्तु उस शुभको धर्म न माने तथा उसे धर्मका अंश या धर्मका सच्चा साधन न माने । पश्चात् उस शुभभावको भी दूर कर निश्चय चारित्र प्रगट करना अर्थात् निर्विकल्प दशा प्रगट करना चाहिये । व्रतके भेद देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ अर्थ-व्रतके दो भेद है-[ देशतः अणु ] उपरोक्त हिंसादि पापोंका एकदेश त्याग करना सो अणुव्रत और [ सर्वतः महती ] सर्वदेश त्याग करना सो महाव्रत है। टीका १-शुभभावरूप व्यवहारततके ये दो भेद है । पांचवें गुणस्थानमें
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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