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________________ ૫૦ मोक्षशास्त्र भी ' चारित्र' इस नामसे प्रसिद्ध है परन्तु अपनी अर्थ क्रियाको करने में असमर्थ है, इसलिये वह निश्चयसे सार्थक नामवाला नहीं है ।। ७५६ ।। किंतु वह भोपयोगके समान बंधका कारण है इसलिये यह श्रेष्ठ नही है । श्रेष्ठ तो वह है जो न तो उपकार ही करता है और न अपकार ही करता है ||७६०|| शुभोपयोग विरुद्ध कार्यकारी है यह बात विचार करनेपर प्रसिद्ध भी नहीं प्रतीत होती, क्योंकि शुभोपयोग एकान्त से बन्धका कारण होनेसे वह शुद्धोपयोगके अभाव में ही पाया जाता है ||७६१|| बुद्धिके दोषसे ऐसी तर्कणा भी नहीं करनी चाहिये कि शुभोपयोग एकदेश निर्जराका कारण है, क्योंकि न तो शुभोपयोग ही बन्धके प्रभावका कारण है और न अशुभोपयोग ही बन्धके अभावका कारण है ॥ ७६२ ॥ ( श्री वर्णी ग्रंथमालासे प्र० पंचाध्यायी पृष्ठ २७२-७३ ) २ - सम्यग्दृष्टि को शुभोपयोग से भी बन्धकी प्राप्ति होती है ऐसा श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत प्रवचनसार गा० ११ में कहा है उसमे श्री अमृतचन्द्राचार्य उस गाथाकी सूचनिकामें कहते हैं कि 'अब जिनका चारित्र परिणामके साथ संपर्क है ऐसे जो शुद्ध और शुभ ( दो प्रकार ) परिणाम है, उनके ग्रहण तथा त्यागके लिये (-शुद्ध परिणामके ग्रहरण और शुभ परिणाम के त्यागके लिये ) उनका फल विचारते है: धर्मेण परिणतात्मा यदि शुद्ध संप्रयोग युतः । प्राप्नोति निर्वाण सुखं शुभोपयुक्तो वा स्वर्ग सुखम् ॥११॥ अन्वयार्थ --- धर्म से परिणमित स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्धोपयोग में युक्त हो तो मोक्षसुखको प्राप्त करता है और यदि शुभउपयोगवाला हो तो स्वर्गके सुखको (-बन्धको ) प्राप्त करता है । टीका–जब यह आत्मा धर्म परिणत स्वभाववाला वर्तता हुआ शुद्धोपयोग परिणतिको धारण करता है-बनाये रखता है तब विरोधी शक्तिसे रहित होनेके कारण अपना कार्य करनेके लिये समर्थ है ऐसा चारित्रवान होनेसे साक्षात् मोक्षको प्राप्त करता है और जब वह धर्म परिरगत स्वभाववाला होनेपर भी शुभोपयोग परिणति के साथ युक्त होता है तव जो विरोधी शक्ति सहित होनेसे स्वकार्य करनेमें असमर्थ और कथं
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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