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________________ ५३२ मोक्षशास्त्र जितना रागभाव है वह पासवका कारण है ऐसा समझना । (१४) आवश्यक अपरिहाणि आवश्यक अपरिहाणिका अर्थ है 'पावश्यक क्रियाओंमें हानि न होने देना । जब सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धभावमें नहीं रह सकता तब अशुभभाव दूर करनेसे शुभभाव रह जाता है; इससमय शुभरागरूप आवश्यक क्रियायें उसके होती हैं। उस आवश्यक क्रियाके भावमें हानि न होने देना उसे आवश्यक अपरिहारिण कहा जाता है। वह क्रिया आत्माके शुभभावरूप है किन्तु जड़ शरीरकी अवस्थामें आवश्यक क्रिया नही होती और न आत्मासे शरीरको क्रिया हो सकती है। (१५) मार्गप्रभावना सम्यग्ज्ञानके माहात्म्यके द्वारा, इच्छा निरोधरूप सम्यक्तपके द्वारा तथा जिनपूजा इत्यादिके द्वारा धर्मको प्रकाशित करना सो मार्गप्रभावना है। प्रभावनामें सबसे श्रेष्ठ आत्मप्रभावना है, जो कि रत्नत्रयके तेजसे देदीप्यमान होनेसे सर्वोत्कृष्ट फल देती है। सम्यग्दृष्टिके जो शुभरागरूप प्रभावना है वह पासूव बन्धका कारण है परन्तु सम्यग्दर्शनादिरूप जो प्रभावना है वह आस्रव-बन्धका कारण नही है। (१६) प्रवचन वात्सल्य सामियोंके प्रति प्रीति रखना सो वात्सल्य है। वात्सल्य और भक्तिमें यह अन्तर है कि वात्सल्य तो छोटे बड़े सभी साधर्मियोंके प्रति होता है और भक्ति अपनेसे जो बड़ा हो उसके प्रति होती है । श्रुत और श्रुतके वारण करनेवाले दोनोंके प्रति वात्सल्य रखना सो प्रवचन वात्सल्य है। यह शुभरागरूप भाव है, सो आस्रव-बन्धका कारण है। तीर्थंकरों के तीन मेद तीर्थकर देव तीन तरहके हैं-(१) पंच कल्याणक (२) तीन कल्याणक और (३) दो कल्याणक । जिनके पूर्वभवमे तीर्थंकर प्रकृति यर गई हो उनके तो नियमसे गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ये पाँच
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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