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________________ अध्याय ६ सूत्र १३ ५१६ घरसे कितने हाथ दूर है इत्यादि बातें केवलज्ञानमें मालूम नहीं होती।' सो यह मान्यता सदोष है । इसमें आत्माके शुद्ध स्वरूपका और उपचारसे अनन्त केवली भगवानोंका अवर्णवाद है। भाविकालमें होनहार, सर्व द्रव्यको सर्व पर्याय भी केवलज्ञानीके वर्तमान ज्ञानमें निश्चितरूप प्रतिभासित है ऐसा न मानना वह भी केवलीको न मानना है। (१०) ऐसा मानना कि केवली तीर्थकर भगवान ने ऐसा उपदेश किया है कि 'शुभ रागसे धर्म होता है, शुभ व्यवहार करते २ निश्चय धर्म होता है' सो यह उनका प्रवर्णवाद है । "शुभभावके द्वारा धर्म होता है इसीलिये भगवानने शुभभाव किये थे। भगवान ने तो दूसरों का भला करने में अपना जीवन अर्पण कर दिया था" इत्यादि रूपसे भगवान की जीवन कथा कहना या लिखना सो अपने शुद्ध स्वरूपका और उपचारसे अनंत केवली भगवानोंका अवर्णवाद है। (११) प्रश्न-यदि भगवान ने परका कुछ नहीं किया तो फिर जगदुद्धारक, तरण तारण, जीवनदाता, बोधिदाता इत्यादि उपनामोसे षयों पहचाने जाते हैं ? उबर-ये सव नाम उपचारसे हैं; जव भगवानको दर्शनविशुद्धिकी भूमिकामें अनिच्छकभावसे धर्मराग हुआ, तव तीर्थकर नामकर्म बंध गया। तत्त्वस्वरूप यों है कि भगवानको तीर्थंकर प्रकृति वैधते समय जो शुभभाव हुआ था वह उनने उपादेय नहीं माना था, किंतु उस शुभभाव और उस तीर्थंकर नामकर्म दोनोंका अभिप्रायमे निषेध ही था। इसीलिये वे रागको नष्ट करनेका प्रयत्न करते थे। अंतमें राग दूर कर वीतराग हुये फिर केवलज्ञान प्रगट हुआ और स्वयं दिव्यध्वनि प्रगट हुई; योग्य जीवोंने उसे सुनकर मिथ्यात्वको छोड़कर स्वरूप समझा और ऐसे जीवोंने उपचार विनयसे जगउद्धारक, तरणतारण, इत्यादि नाम भगवानके दिये । यदि वास्तवमें भगवान ने दूसरे जीवोंका कुछ किया हो या कर सकते हों तो जगत्के सब जीवोको मोक्षमें साथ क्यो नही लेगये ? इसलिये शाषका कथन किस नयका है यह लक्ष्यमें रखकर उसका यथार्थ अर्थ समझना चाहिये । भगवानको परका कर्ता ठहराना भी भगवानका अवर्णवाद है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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