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________________ अध्याय ६ सूत्र ११ ५११ वाले जीव केश- लोंच, अनशन तप, आतपस्थान इत्यादि दुःखके निमित्त स्वयं करते हैं और दूसरों को भी वैसा उपदेश देते है तो इसीलिये उनके भी असातावेदनीय कर्मका आसूव होगा । उत्तर— नही, यह दूषरण नहीं है । यह विशेष कथन ध्यान में रखना कि यदि अंतरंगक्रोधादिक परिणामोंके श्रावेशपूर्वक खुदको, दूसरे को या दोनोंको दुःखादि देनेका भाव हो तो ही वह असातावेदनीय कर्मके आसूवका कारण होता है । भावार्थ यह है कि अंतरंग क्रोधादिके वश होने से आत्मा जो दुःख होता है वह दुःख केशलोंच, अनशनतप या प्रतापयोग इत्यादि धारण करनेमे सम्यग्दृष्टि मुनिके नही होता, इसलिये' उनके इससे असातावेदनीयका आसूव नही होता, वह तो उनका शरीरके प्रति वैराग्यभाव है । यह बात दृष्टांत द्वारा समझाई जाती है: दृष्टांत - जैसे कोई दयाके अभिप्रायवाला- दयालु और शल्यरहित वैद्य संयमी पुरुषके फोड़ेको काटने या चीरनेका काम करता है और उस पुरुषको दुःख होता है तथापि उस बाह्य निमित्तमात्रके कारण पापवध नही होता, क्योकि वैद्यके भाव उसे दुःख देने के नही है | सिद्धांत - जैसे ही संसार सबन्धी महा दुःखसे उद्विग्न हुये मुनि संसार सम्बन्धी महादुःखका अभाव करनेके उपायके प्रति लग रहे है, उनके संक्लेश परिणामका अभाव होनेसे, शास्त्रविधान करनेमे आये हुये कार्यों स्वयं प्रवर्तनेसे या दूसरोंको प्रवर्तानेसे पापबन्ध नहीं होता, क्योकि उनका अभिप्राय दुःख देने का नहीं; इसलिये वह असातावेदनीयके श्रावके कारण नही है । ३- इस सूत्र का सिद्धांत बाह्य निमित्तोके अनुसार आसून या वंध नही होता, किन्तु जीव स्वयं जैसा भाव करे उस भावके अनुसार ग्रासूव और बंध होता है । यदि जीव स्वय विकारभाव करे तो बंध हो और विकारभाव न करे तो वन्ध नही होता ॥ ११ ॥
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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