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________________ / ४६८ मोक्षशाख माया - लोभ इत्यादि' ऐसा समझना । मिथ्यादर्शनका अर्थ है आत्माके स्वरूपकी मिथ्या मान्यता- विपरीत मान्यता । २ - साम्परायिक आस्रव - यह प्रास्रव संसारका ही कारण है । मिथ्यात्व - भावरूप आस्रव अनन्त ससारका कारण है; मिथ्यात्व का अभाव होनेके बाद होनेवाला आस्रव अल्प संसारका कारण है । ३ - ईर्यापथ आस्रव — यह श्रास्रव स्थिति और अनुभागरहित है और यह अकषायी जीवोके ११-१२ और १३ वें गुरणस्थानमें होता है । चौदहवें गुणस्थान में रहनेवाले जीव प्रकषायी और अयोगी दोनों हैं, इसलिये वहाँ आस्रव है ही नहीं । ४ - कर्मबन्धके चार भेद कर्मबंधके चार भेद हैं; प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग । इनमें पहले दो प्रकारके भेदोंका कारण योग है और अंतिम दो भेदोंका कारण कषाय है । कषाय, संसारका कारण है और इसीलिये जहाँतक कषाय हो वहाँतकके आस्रवको साम्परायिक आस्रव कहते हैं; और कषाय दूर होनेके बाद अकेला योग रहता है । कषाय रहित योगसे होनेवाले आस्रवको ईर्याथ प्रस्रव कहते हैं । आत्माके उस समयका प्रगट होनेवाला जो भाव है सो भाव- ईर्यापथ है और द्रव्यकर्मका जो आस्रव है सो द्रव्य - ईर्यापथ है । इसी तरह भाव और द्रव्य ऐसे दो भेद साम्परायिक आस्रवमें भी समझ लेना । ११ से १३ वे गुणस्थान पर्यन्त ईर्यापथ ग्रास्रव होता है, उससे पहले के गुणस्थानोमे साम्परायिक आस्रव होता है । जिसप्रकार वड़का फल आदि वस्त्र कषायले रङ्गमे निमित्त होता है उसी तरह मिथ्यात्व, क्रोधादिक ग्रात्मा के कर्म-रङ्ग लगनेका निमित्त है, इसीलिये उन भावोको कपाय कहा जाता है । जैसे कोरे घड़ेको रज लगकर चली जाती है उसी तरह कपाय-रहित आत्माके कर्म-रज उड़कर उसी समय चली जाती है, इसीको ईयपिय प्रास्तत्र कहा जाता है । ---
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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