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________________ अध्याय ६ सूत्र २ १४६३ न्याले हैं तथापि उनके सेवन करने से सुख होगा ऐसा मानना सो आस्रव तत्त्व की विपरीत श्रद्धा है । ६-प्रश्न-सूत्र १-२ में योग को आस्रव कहा है और अन्यत्र तो मिथ्यात्वादिको आस्रव कहा है, इसका क्या कारण है ? उचर-चौथे सूत्रमे यह स्पष्ट कहा है कि योग दो प्रकारका हैसकषाययोग और अकषाययोग, इसलिये ऐसा समझना चाहिये कि सकषाय योगमे मिथ्यात्वादिका समावेश हो जाता है। ७-इन दोनों प्रकारके योगोंमेंसे जिस पदमें जो योग हो वह जीव की विकारी पर्याय है, उसके अनुसार प्रात्म' प्रदेशमें नवीन द्रव्यकर्म आते हैं, इसीलिये यह योग द्रव्यास्रवका निमित्त कारण कहा जाता है। ८-प्रश्न-पहले योग दूर होता है या मिथ्यात्वादि दूर होते है ? उचर-सबसे पहले मिथ्यात्वभाव दूर होता है । योग तो चौदहवें अयोग-केवली गुणस्थानमे दूर होता है। यद्यपि तेरहवें गुणस्थानमें ज्ञान वीर्यादि संपूर्ण प्रगट होते है तथापि योग होता है; इसलिये पहले मिथ्यात्व दूर करना चाहिये और मिथ्यात्व दूर होनेपर उसके सम्बन्धित थोग सहज ही दूर होता है। -सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय नहीं होनेसे उसके उस प्रकार का भाव-प्रास्रव होता ही नही। सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व दूर हो जानेसे अनंतानुबंधी कषायका तथा अनंतानुबंधी कषायके साथ संबंध रखनेवाले अविरति और योगभावका अभाव हो जाता है (देखो समयसार • गा० १७६ का भावार्थ )। और फिर मिथ्यात्व दूर हो जानेसे उसके साथ रहनेवाली प्रकृतियोंका बंध नहीं होता और अन्य प्रकृतियां सामान्य संसारका कारण नहीं है । जड़से काटे गये वृक्षके हरे पत्तोंकी तरह वे प्रकृतियाँ शीघ्र ही सूखने योग्य है । संसारका मूल अर्थात् ससारका कारण मिथ्यात्व ही है । ( पाटनी ग्रथमाला समयसार गा० १६८ पृ० २५८) अब योगके निमित्तसे आस्रवके भेद बतलाते हैं शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥३॥
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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