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________________ अध्याय ५ भूमिका ४६६ ४. तत्त्वकी श्रद्धा कब हुई कही जाय ? (१) जैन शास्त्रोंमें कहे हुए जीवके त्रस-स्थावर आदि भेदोंको, गुणस्थान मार्गणा इत्यादि भेदोको तथा जीव पुद्गल आदि भेदोंको तथा वर्णादि भेदोको तो जीव जानता है, किन्तु अध्यात्मशास्त्रोंमें भेदविज्ञान के कारणभूत और वीतरागदशा होनेके कारणभूत वस्तुका जैसा निरूपण किया है वैसा जो नही जानता, उसके जीव और अजीव तत्त्वको यथार्थ श्रद्धा नही है। (२) पुनश्च, किसी प्रसंगसे भेद विज्ञानके कारणभूत और वीतरागदशाके कारणभूत वस्तुके निरूपणका जाननामात्र शास्त्रानुसार हो, परन्तु निजको निजरूप जानकर उसमे परका अंश भी ( मान्यतामे) न मिलाना तथा निजका अंश भी (मान्यतामे) परमें न मिलाना; जहांतक जीव ऐसा श्रद्धान न करे वहांतक उसके जीव और अजीव तत्त्वकी यथार्थ श्रद्धा नही । (३) जिस प्रकार अन्य मिथ्यादृष्टि बिना निश्चयके (निर्णय रहित) पर्याय बुद्धिसे (-देहदृष्टिसे) ज्ञानत्त्वमे तथा वर्णादिमे अहंबुद्धि धारण करता है, उसी प्रकार जो जीव आत्माश्रित ज्ञानादिमें तथा शरीराश्रित उपदेश, उपवासादि क्रियामे निजत्व मानता है तो उसके जीव-अजीव तत्त्वकी यथार्थ श्रद्धा नही है । ऐसा जीव किसी समय शास्त्रानुसार यथार्थ बात भी कहे परन्तु वहाँ उसके अतरंग निश्चयरूप श्रद्धा नही है, इसीलिये जिस तरह नशा युक्त मनुष्य माताको माता कहे तो भी वह समझदार नही है, उसी तरह यह जीव भी सम्यग्दृष्टि नही । (४) पुनश्च, यह जीव जैसे किसी दूसरेकी ही बात करता हो वैसे ही आत्माका कथन करता है, परन्तु 'यह आत्मा मैं ही हूँ' ऐसा भाव उसके प्रतिभासित नही होता। और फिर जैसे किसी दूसरेको दूसरेसे भिन्न बतलाता हो वैसे ही वह इस आत्मा और शरीरकी भिन्नता प्ररूपित करता है, परन्तु 'मैं इन शरीरादिकसे भिन्न हूँ' ऐसा भाव उसके नही भासता; इसीलिये उसके जीव-अजीवकी यथार्थ श्रद्धा नहीं। (५) पर्यायमे (-वर्तमान दशामे,) जीव-पुलके परस्परके निमित्त
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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