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________________ ४८२ मोक्षशाख भावार्थ-जीव और पुद्गल द्रव्य शुद्ध या अशुद्ध अवस्थामें स्वतंत्रपनेसे ही अपने परिणामको करते हैं; अज्ञानी जीव भी स्वतंत्रपनेसे निमित्ताधीन परिणमन करता है, कोई निमित्त उसे आधीन नहीं बना सकता ॥ ६ ॥ उपादान विधि निर्वचन, है निमित्त उपदेश; बसे जु जैसे देशमें, करे सु तैसे भेद ॥ ७॥ अर्थ-उपादानका कथन एक "योग्यता" शब्द द्वारा ही होता है। उपादान अपनी योग्यतासे अनेक प्रकार परिणमन करता है तब उपस्थित निमित्त पर भिन्न २ कारणपनेका आरोप (-भेष ) आता है उपादानकी विधि निर्वचन होनेसे निमित्त द्वारा यह कार्य हुआ ऐसा व्यवहारसे कहा जाता है। भावार्थ-उपादान जब जैसे कार्यको करता है तब वैसे कारणपने का आरोप (-मेष) निमित्तपर आता है जैसे-कोई वज्रकायवान मनुष्य नर्कगति योग्य मलिन भाव करता है तो वज्रकाय पर नर्कका कारणपनेका आरोप आता है, और यदि जीव मोक्षयोग्य निर्मलभाव करता है तो उसी निमित्तपर मोक्षकारणपनेका आरोप आता है । इस प्रकार उपादान के कार्यानुसार निमित्तमे कारणपनेका भिन्न भिन्न आरोप दिया जाता है । इससे ऐसा सिद्ध होता है कि निमित्तसे कार्य नही होता परंतु कथन होता है। अतः उपादान सच्चा कारण है, और निमित्त आरोपित कारण है। प्रश्न-पुद्गलकर्म, योग, इन्द्रियोंके भीग, धन, घरके लोग, मकान इत्यादि इस जीवको राग-द्वेष परिणामके प्रेरक हैं ? उत्तर-नही, छहों द्रव्य, सर्व अपने २ स्वरूपसे सदा असहाय (-स्वतंत्र ) परिणमन करते है, कोई द्रव्य किसीका प्रेरक कभी नही है, इसलिये किसी भी परद्रव्य राग-द्वेषके प्रेरक नही हैं परन्तु मिथ्यात्वमोहरूप मदिरापान है वही ( अनन्तानुबन्धी ) राग-द्वेषका कारण है। प्रश्न-पुद्गलकर्मको जोरावरीसे जीवको राग-द्वेष करना पड़ता है; पुद्गलद्रव्य कर्मोका भेप धर धर कर ज्यों २ बल करते हैं त्यों त्यों जीव को राग-द्वेप अधिक होते है यह बात सत्य है ?
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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