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________________ ४५६ मोक्षशाख नोट-स्निग्धता और रूक्षताके अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं । एक अविभागी अंशको गुण कहते है ऐसा यहाँ गुण शब्दका अर्थ है। (५) स्याद्वाद सिद्धांत प्रत्येक द्रव्य गुण-पर्यायात्मक है, उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत् है, सप्त भंगस्वरूप है । इस तरह द्रव्यमें त्रिकाली अखंड स्वरूप और प्रत्येक समयमें प्रवर्तमान अवस्था-ऐसे दो पहलू होते हैं । पुनरपि स्वयं स्व से अस्तिरूप है और परसे नास्तिरूप है । इसीलिये द्रव्य, गुण और पर्याय सब अनेकांतात्मक ( अनेक धर्मरूप ) हैं । अल्पज्ञ जीव किसी भी पदार्थका विचार क्रमपूर्वक करता है, परन्तु समस्त पदार्थको एक साथ विचार में नहीं ले सकता; विचारमें आनेवाले पदार्थके भी एक पहलूका विचार कर सकता है और फिर दूसरे पहलूका विचार कर सकता है । इसप्रकार उसके विचार और कथनमे क्रम पड़े बिना नहीं रहता। इसीलिये जिस समय त्रिकाली ध्रुव पहलूका विचार करे तब दूसरे पहलू विचारके लिये मुल्तवी रहें। अतः जिसका विचार किया जावे उसे मुख्य और जो विचार मे बाकी रहे उन्हें गौरण किया जावे । इसप्रकार वस्तुके अनेकांतस्वरूपका निर्णय करने में क्रम पड़ता है । इन अनेकांतस्वरूपका कथन करनेके लिये तथा उसे समझनेके लिये उपरोक्त पद्धति ग्रहण करना, इसीका नाम 'स्याद्वाद' है । और वह इस अध्यायके ३२ वे सूत्र में बताया है। जिससमय जिस पहलू ( अर्थात् धर्म ) को ज्ञानमे लिया जावे उसे 'अर्पित' कहा जाता है और उसी समय जो पहलू अर्थात् धर्म ज्ञानमें गौण रहे हों वह 'अनर्पित' कहलाता है । इस तरह समस्त स्वरूपकी सिद्धि-प्राप्ति-निश्चितज्ञान हो सकता है। उस निखिल पदार्थके ज्ञानको प्रमाण और एक धर्मके ज्ञानको नय कहते है, और 'स्यात् अस्ति-नास्ति' के भेदों द्वारा उसी पदार्थके ज्ञानको 'सप्तभगी' स्वरूप कहा जाता है। (६) अस्तिकाय छह द्रव्योमें से जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये पांच र अनेरात अने+अन्त (धर्म ) = अनेक धर्म । -
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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