SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 522
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४२ मोक्षशास्त्र इन समस्त दोषोंको दूरकर वस्तुका अनेकांत स्वरूप समझनेके लिये प्राचार्य भगवानने यह सूत्र कहा है। अर्पित (मुख्य ) और अनर्पित (गौण ) का विशेष समझमें तथा कथन करनेके लिये किसी समय उपादानको मुख्य किया जाता है और किसी समय निमित्तको, ( कभी निमित्तकी मुख्यतासे कार्य नहीं होता मात्र कथनमें मुख्यता होती है ) किसी समय द्रव्यको मुख्य किया जाता है तो किसी समय पर्यायको, किसी समय निश्चयको मुख्य कहा जाता है और किसी समय व्यवहारको । इस तरह जब एक पहलूको मुख्य करके कहा जावे तब दूसरे गोरण रहनेवाले पहलुओंका यथायोग्य ज्ञान कर लेना चाहिये । यह मुख्य और गौणता ज्ञानको अपेक्षासे समझनी। -परन्तु सम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे हमेशा द्रव्यदृष्टिको प्रधान करके उपदेश दिया जाता है द्रव्यदृष्टिकी प्रधानतामें कभी भी व्यवहारकी मुख्यता नहीं होती; वहाँ पर्यायदृष्टिके भेदको गौरण करके उसे व्यवहार कहा है। भेद दृष्टिमें रुकने पर निर्विकल्प दशा नही होती और सरागीके विकल्प रहा करता है। इसलिये जबतक रागादिक दूर न हों तबतक भेदको गौण कर अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराया जाता है। द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे व्यवहार, पर्याय या भेद हमेशा गौरण रखा जाता है, उसे कभी मुख्य नहीं किया जाता ॥ ३२॥ अब परमाणुओंमें बंध होनेका कारण बतलाते हैं स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः॥३३॥ अर्थ:-[ स्निग्धरूक्षत्वात् ] चिकने और रूखेके कारण [बंधः] दो, तीन इत्यादि परमाणुओंका बंध होता है। ., टीका (१) पुद्गलमें अनेक गुण हैं किंतु उनमेंसे स्पर्श गुणके अतिरिक्त दूसरे गुणोंका पर्यायोंसे वन्ध नहीं होता, वैसे ही स्पर्शकी पाठ पर्यायों मेंसे भी स्निग्ध और रूक्ष नामके पर्यायोंके कारणसे ही बंध होता है और दूसरे
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy