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________________ ४३८ मोक्षशास्त्र ग्लोकमें जाता है, उस समय उसे अनुकूल आनुपूर्वी नाम कर्मका उदय संयोगरूपसे होता है । कर्मपरद्रव्य है इसलिये वह जीवको किसी जगह नहीं ले जा सकता' इसमें पहला कथन अर्पित और दूसरा अनर्पित है । उपरोक्त दृष्टांत ध्यानमें रखकर शास्त्रमें कैसा भी कथन किया हो उसका निम्नलिखित अनुसार अर्थ करना चाहिये पहले यह निश्चय करना चाहिये कि शब्दार्थके द्वारा यह कथन किस नयसे किया है । उसमें जो कथन जिस नयसे किया हो वह कथन अर्पित है ऐसा समझना । और सिद्धान्तके अनुसार उसमें गौणरूपसे जो दूसरे भाव गर्भित हैं, यद्यपि वे भाव जो कि वहाँ शब्दोमे नही कहे तो भी ऐसा समझ लेना चाहिये कि वे गर्भितरूपसे कहे है, यह अनर्पित कथन है । इसप्रकार अर्पित और अनर्पित दोनों पहलुओं को समझकर यदि जीव अर्थ करे तो हो जीवको प्रमाण और नयका सत्य ज्ञान हो । यदि दोनों पहलुनों को यथार्थ न समझे तो उसका ज्ञान अज्ञानरूपमें परिणमा है इसलिये उसका ज्ञान अप्रमाण और कुनयरूप है । प्रमारणको सम्यक् अनेकांत भी कहा जाता है । - जहाँ जहाँ निमित्त और प्रोदयिक भाव की सापेक्षताका कथन हो, वहाँ मोदयिकभाव जीवका स्वतत्त्व होनेसे- निश्चयसे निरपेक्ष ही है सापेक्ष नही है इस मुख्य बातका स्वीकार होना चाहिये । एकान्त सापेक्ष मानने से शास्त्रका सच्चा अर्थ नही होगा । (४) अनेकान्तका प्रयोजन अनेकान्त भी सम्यक् एकान्त ऐसा निजपदकी प्राप्ति कराने के अतिरिक्त अन्य दूसरे हेतुसे उपकारी नही है । (५) एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ भी कर सकता है इस मान्यता में आनेवाले दोषोंका वर्णन जगतमे छहों द्रव्य अत्यंत निकट एक क्षेत्रावगाह रूपसे रहे हुये हैं, वे स्वयं निजमें अंतर्मग्न रहते हुये अपने अनन्त धर्मोके चक्रको चूमते हैं,स्पर्श करते है तो भी वे परस्परमें एक दूसरे को स्पर्श नही करते । यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको स्पर्श करे तो वह परद्रव्यरूप हो जाय और यदि
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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