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________________ ४१२ मोक्षशास्त्र है इसलिये निश्चय नयसे वह जीव की अवस्था नहीं है । यह निश्चय नयसे जीवका स्वरूप नहीं है इसलिये पोद्गलिक है । यदि वह जीवका त्रिकाली स्वभाव हो तो वह दूर न हो, किन्तु वह भाववचनरूप अवस्था जीवमेंसे दूर हो सकती है— अलग हो सकती है - इसी अपेक्षाको लक्ष्यमें रखकर उसे पौद्गलिक कहा जाता है । (५) भावमन सम्बन्धी अध्याय २ सूत्र ११ की टीका पढे । वहाँ जीवकी विशुद्धिको भावमन कहा है सो वह अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टि से कहा है ऐसा समझना । अब पुद्गलका जीवकी साथका निमित्त नैमित्तिक संबन्ध बताते हैं सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥ श्रर्थ - [ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ] इंद्रियजन्य सुख दु:ख, जीवन, मरण ये भी पुद्गलके उपकार हैं । टीका (१) उपकार ( - उपग्रह ) शब्दका श्रर्थं किसी का भला करना नहीं किन्तु निमित्त मात्र ही समझना चाहिये; नहीं तो यह नही कहा जा सकता कि "जीवों को दुःख मरणादिके उपकार" पुद्गल द्रव्यके हैं । (२) सूत्रमें 'च' शब्दका प्रयोग यह बतलाता है कि जैसे शरीरादिक निमित्त हैं वैसे ही पुद्गल कृत इंद्रियाँ भी जीवको अन्य उपकाररूप से हैं । (३) सुख दुःखका संवेदन जीवको है, पुद्गल अचेतन-जड़ है, उसे सुख दुखका संवेदन नहीं हो सकता । (४) निमित्त उपादानका कुछ कर नही सकता । निमित्त अपने में पूरा पूरा कार्य करता है और उपादान अपने में पूरा पूरा कार्य करता है । यह मानना कि निमित्त पर द्रव्यका वास्तवमें कुछ असर प्रभाव करता है सो दो द्रव्यों को एक माननेरूप असत् निर्णय है । (५) प्रश्न - निमित्त उपादानका कुछ भी कर नहीं सकता तो सूई
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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