SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ मोक्षशास्त्र असंख्येयाः प्रदेशाः धर्माधर्मैकजीवानाम् ॥ ८ ॥ अर्थ - [ धर्माधर्मैकजीवानाम् ] धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और एक जीव द्रव्यके [ प्रसंख्येयाः ] असंख्यात [ प्रदेशाः ] प्रदेश हैं । टीका ( १ ) प्रदेश - प्रकाशके जिनने क्षेत्रको एक पुद्गल परमाणु रोके उतने क्षेत्रको एक प्रदेश कहते हैं | ( २ ) ये प्रत्येक द्रव्य द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से प्रखण्ड, एक, निरंश है । पर्यायार्थिक नयको अपेक्षासे असंख्यात प्रदेशी है । उसके असंख्यात प्रदेश हैं इससे कुछ उसके असंख्य खण्ड या टुकड़े नहीं हो जाते । और पृथक् २ एक २ प्रदेश जितने टुकड़ों के मिलनेसे बना हुआ भी वह द्रव्य नही है । ( ३ ) आकाश भी द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से प्रखण्ड, निरंश, सर्वगत, एक और भिन्नता रहित है । पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे जितने अंश को परमाणु रोक्रे उतने अंशको प्रदेश कहते हैं । आकाशमें कोई टुकड़े नहीं हैं या उसके टुकड़े नहीं हो जाते । टुकड़ा तो संयोगी पदार्थका होता है; पुद्गलका स्कंध संयोगी है इसलिये जब वह खण्ड होने योग्य हो तब वह खण्ड टुकड़े रूपमें परिणमन करता है । ( ४ ) आकाशको इस सूत्रमें नही लिया, क्योंकि उसके अनन्त प्रदेश हैं, इसलिये वह नवमें सूत्रमें कहा जायगा । ( ५ ) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और जीवके प्रदेश असंख्यात हैं और वे संख्याको अपेक्षासे लोक प्रमाण असंख्यात हैं तथापि उनके प्रदेशों की व्यापक अवस्थामें अन्तर है । धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त हैं । यह बारहवें और तेरहवें सूत्रोंमें कहा है और जीवके प्रदेश उस उस समय के जीवके शरीरके प्रमाणसे चौड़े या छोटे होते हैं (यह सोलहवें सूत्रमे कहा है ) जीव जब केवलि समुद्घात अवस्था धारण करता है तब उसके प्रदेश सम्पूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त होते हैं तथा समुद्घातके समय उस
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy