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________________ अध्याय ५ सूत्र ३-४ ३६३ सच्चे उम्मेदवार ) इस अध्यायके १-२-३ सूत्रोंकी टीकामें जो स्वरूप बताया है उसे लक्ष्यमें लेकर इस स्वरूपको यथार्थ समझकर जीव और अजीव तत्त्वके स्वरूपकी अनादिसे चली आई भ्रांति दूर करें। पुद्गल द्रव्यसे अतिरिक्त द्रव्योंकी विशेषता नित्यावस्थितान्य रूपाणि ॥४॥ अर्थः-ऊपर कहे गये द्रव्योंमेसे चार द्रव्य [ अरूपाणि ] रूप रहित [ नित्यावस्थितानि ] नित्य और अवस्थित हैं। टीका (१) नित्यः-जो कभी नष्ट न हो उसे नित्य कहते हैं । (देखो सूत्र ३१ और उसकी टीका ) __ अवस्थितः-जो अपनी संख्याको उल्लंघन न करे उसे अवस्थित कहते हैं। __ अरूपी:-जिसमें स्पर्श, रस, गध और वर्ण न पाया जाय उसे अरूपी कहते है। (२) पहले दो स्वभाव समस्त द्रव्योंमें होते हैं । ऊपर जो आसमानी रंग दिखाई देता है उसे लोग आकाश कहते हैं किन्तु यह तो पुद्गल का रंग है आकाश तो सर्व व्यापक, अरूपी, अजीव एक द्रव्य है। 'नित्य' और 'अवस्थित' का विशेष स्पष्टीकरण (३) 'अवस्थित' शब्द यह बतलाता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिगमन करता है। परिणाम और परिणामित्त्व अन्य किसी तरह नहीं बन सकता। यदि एक द्रव्य, उसका गुण या पर्याय दूसरे द्रव्यका कुछ भी करे या करावे तो वह तन्मय ( परद्रव्यमय) हो जाय । किन्तु कोई द्रव्य परद्रव्यमय तो नहीं होता। यदि कोई द्रव्य अन्य द्रव्यरूप हो जाये तो उस द्रव्यका नाश हो जाय और द्रव्योंका 'अवस्थितपन' न रहेगा। और फिर द्रव्योंका नाश होने पर उनका 'नित्यत्त्व' भी न रहेगा।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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