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________________ मोक्षशास्त्र टीका (१) सम्यग्दर्शन की व्याख्या करते हुए तत्त्वार्थका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है ऐसा प्रथम अध्यायके दूसरे सूत्र में कहा है, फिर तीसरे सूत्र में तत्त्वोंके नाम बताये हैं, उनमेंसे जीवका अधिकार पूर्ण होने पर अजीव तत्त्वका कथन करना चाहिये, इसलिये इस अध्यायमें मुख्य रूपसे अजीव का स्वरूप कहा है । ३६० (२) जीव अनादिसे स्व स्वरूप नही जानता और इसीलिये उसे सात तत्त्व सम्बन्धी अज्ञान रहता है । शरीर जो पुद्गल पिंड है उसे वह अपना मानता है; इसलिए यहाँ यह बताया है कि यह पुद्गल तत्त्व जीवसे बिल्कुल भिन्न है और जीव रहित है अर्थात् अजोव है । (३) जीव अनादिसे यह मान रहा है कि शरीरके जन्म होने पर मैं उत्पन्न हुआ और शरीर के वियोग होने पर मेरा नाश हुआ, यह उसकी मुख्य रूपसे अजीव तत्त्व सम्बन्धी विपरीत श्रद्धा है । आकाशचे स्वरूपका भी उसे भ्रम है और स्वयं उसका स्वामी है ऐसा भी यह जीव मानता है । यह विपरीत श्रद्धा दूर करनेके लिए इस सूत्रमे यह कहा गया है कि वे द्रव्य अजीव हैं । धर्म और अधर्म द्रव्यको भी वह नहीं जानता, इसीलिए वस्तुके होते हुए भी उसे उसका निषेध है; यह दोष भी इस सूत्रसे दूर होता है । आकाशका स्वरूप ४, ६, ७, ६, १८ वें सूत्रोंमें बताया है, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका स्वरूप ४-६-७-८-१२ और १७ वें सूत्रोंमें बताया गया है | दिशा श्राकाशका भाग है । -- (४) प्रश्न- - 'काय' का अर्थ तो शरीर है तथापि यहाँ धर्मादि द्रव्यको काय क्यों कहा है ? उचर- - यहाँ उपचारसे उन्हें ( धर्मादि द्रव्यको ) काय कहा है । जैसे शरीर पुद्गल द्रव्यका समूहरूप है उसी प्रकार धर्मादि द्रव्यों को भी प्रदेशोंके समूहरूप कायके समान व्यवहार है । यहाँ कायका प्रर्थ बहुप्रदेशी समझना चाहिये ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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