SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 457
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रध्याय ४ उपसंहार ३७७ रहते हैं, इसलिये वस्तु एक साथ कही नही जा सकती इसप्रकार वस्तु वक्तव्य भी है और अवक्तव्य भी है; इसलिये स्यात् अस्ति - अवक्तव्य है । ६. इस ही प्रकार ( अस्तित्वकी भांति ) वस्तुके स्यात् नास्ति अवक्तव्य कहना चाहिये । ७. और दोनो धर्मोको क्रमसे कह सकते हैं किन्तु एक साय नही कह सकते इसलिये वस्तु स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य कहना चाहिये | ऊपर कहे अनुसार सात भंग वस्तुमे संभव हैं । (२) इसप्रकार एकत्व, अनेकत्व इत्यादि सामान्य धर्म पर सात भग विधि-निषेघसे लगाना चाहिये । जहाँ जो अपेक्षा संभव हो उसे लगाना चाहिये और उसीप्रकारसे जीवत्व, श्रजीवत्व आदि विशेष धर्मो में वे भंग लगाना चाहिये | जैसे कि-जीव नाम की वस्तु है वह स्यात् जीवत्व है स्यात् अजीवत्व है इत्यादि प्रकारसे लगाना चाहिये । वहाँ पर इस प्रकार पेक्षा पूर्वक समझना कि जीवका अपना जीवत्वधर्म जीवमे है इसलिये जीवत्व है, पर-प्रजीवका अजीवत्वधर्म जीवमे नही है तो भी जीवके दूसरे (ज्ञानको छोड कर ) धर्मोकी मुख्यता करके कहा जावे तो उन धर्मोकी अपेक्षासे प्रजीवत्व है; इत्यादि सात भंग लगाना चाहिये । तथा जीव अनंत हैं उसकी अपेक्षासे अर्थात् अपना जीवत्व अपनेमे है परका जीवत्व अपनेमे नही है इसलिये पर जीवोकी अपेक्षासे प्रजीवत्व है, इस प्रकार से भी अजीवत्व धर्म प्रत्येक जीव मे सिद्ध हो सकता है— कह सकते हैं । इसप्रकार अनादिनिधन अनंत जीव अजीव वस्तुएं है । उनमें प्रत्येक अपना अपना द्रव्यत्व, पर्यायत्व इत्यादि अनंत धर्म हैं । उन धर्मों सहित सात भंगोसे वस्तु को सिद्धि करना चाहिये । I (३) वस्तुकी स्थूल पर्याय है वह भी चिरकाल स्थाई अनेक धर्मरूप होती है । जैसे कि जीवमें संसारीपर्याय और सिद्धपर्याय । और संसारी में त्रस, स्थावर; उसमे मनुष्य, तियंच इत्यादि । पुदुलमें अणु, स्कन्ध तथा घट, पट इत्यादि । वे पर्यायें भी कथचित् वस्तुपना सिद्ध करती हैं । उन्हें भी उपरोक्त प्रकारसे ही सात भंगसे सिद्ध करना चाहिये; तथा जीव और पुद्गल के संयोगसे होनेवाले श्राश्रव, बंध, सवर, निर्जरा, पुण्य, पाप, मोक्ष इत्यादि भावोमे भी, वहुतसे धर्मपनाको अपेक्षासे तथा परस्पर विधिनिषेध ४८
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy