SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय ४ उपसंहार ३७१ है उसी प्रकार उसीसमय उस जीवको छोड़कर दूसरेका निषेध भासित होता है वह भी जीवका स्वरूप है । इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूपसे जीवका स्वरूप है और पररूपसे न होना भी जीवका स्वरूप है । यह जीवमे स्यात् अस्ति तथा स्यात् नास्ति का स्वरूप बतलाया है । इसोप्रकार परवस्तुओं का स्वरूप उन वस्तुरूपसे है और परवस्तुओं का स्वरूप जोवरूपसे नही है;- - इसप्रकार सभी वस्तुओमे श्रस्ति नास्ति स्वरूप समझना चाहिये । शेष पाँच भंग इन दो भंगोके ही विस्तार है । "आप्तमीमांसाकी १११ वी कारिकाकी व्याख्यामे श्रकलकदेव कहते हैं कि- वचनका ऐसा स्वभाव है कि स्वविषयका अस्तित्व दिखानेसे वह उससे इतरका ( परवस्तुका ) निराकरण करता है, इसलिये अस्तित्व और नास्तित्व- इन दो मूल धर्मोके आश्रयसे सप्तभंगीरूप स्याद्वाद की सिद्धि होती है ।" [ तत्वार्थसार पृष्ठ १२५ का फुट नोट ] साधक जीवको अस्ति-नास्तिके ज्ञानसे होनेवाला फल जीव अनादि अविद्याके कारण शरीरको अपना मानता है और इसलिये वह शरीरके उत्पन्न होने पर अपनी उत्पत्ति तथा शरीर का नाश होने पर अपना नाश होना मानता है पहिली भूल 'जीवतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है और दूसरी भूल 'अजीवतत्त्व' को विपरीत श्रद्धा है । [ जहाँ एक तत्त्वकी विपरीत श्रद्धा होती है वहीं दूसरे तत्त्वोकी भी विपरीत श्रद्धा होती ही है । ] इस विपरीत श्रद्धाके कारण जीव यह मानता रहता है कि वह शारीरिक क्रिया कर सकता है; उसे हिला डुला सकता है, उठा बैठा सकता है; सुला सकता है और शरीरकी सँभाल कर सकता है इत्यादि । जीवतत्त्व संबंधी यह विपरीत श्रद्धा अस्ति नास्ति भंगके यथार्थ ज्ञानसे दूर होती है । यदि शरीर अच्छा हो तो जीवको लाभ होता है, और खराब हो तो हानि होती है, शरीर अच्छा हो तो जीव धर्म कर सकता है और
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy